खाने खिलाने की यात्रा


खाना बनाना भी मैंने वैसे ही सीखा, जैसे ज़िन्दगी में अधिकतर चीज़ें सीखी, जैसे साईकिल चलाना, कार चलाना, कहानी लिखना या आर्गेनाइजेशन चलना...

करीबी जानते हैं कि कायदे से उपरोक्त कुछ नहीं आता... गिरते पड़ते सीख ही रहे  हैं...कच्ची पक्की चीज़ें जानने की ये फेहरिस्त बड़ी लम्बी है, उम्मीद है, ज़िन्दगी के ढलने से पहले कुछ चीज़ें आ ही जायेंगी।  

खैर ! खाना बनाने के मामले में तो करीबी यार दोस्त डिश के साथ फरमाइश करते हैं, मसलन अम्मा मशरूम मटर या बेगम वेज़ कीमा मटर या भाई अचारी चिकन आदि।

बीते कुछ सालों से हम वेजिटेरियन हो गए पर अब भी कुछ तयशुदा नॉन वेज घर पर हम बनाते हैं..थोडा मुश्किल तो है वेजिटेरियन इंसान का नॉन वेज बनाना पर खाने को ले शुद्धता वादी का चश्मा न चढ़ जाए इसलिए यह रियाज़त करते रहते हैं।

भारत में स्त्री और पुरुषों की खाने बनाने का शौक़ अलग अलग कारण से है, जैसे बहुत लोगों को खिलाना बहुत पसंद है और अपने हाथ से बना के, खिलाना उन्हें बेहद ख़ुशी देता है।

बच्चा कॉलेज होस्टल से घर आये तो माँ क्या न बना दे उसके लिए और क्या क्या न पैक कर के उसके साथ भेज दे...।

खाने बनाने के विडियो देख कर मैं कभी नहीं समझ सका, थैंक्स टू संजीव कपूर, तरला दलाल...

ये विडियो ऐसे होते हैं कि आपको खाना बनाना राकेट साइंस लगने लगता है, उन सबको देख आपको लालच तो बहुत आता है लेकिन आप जानते हैं आप कुछ बना नहीं सकते...खैर मेरे लिए तो नामुमकिन रहा है.. 

खाने बनाने के विडियो इंस्पायर करने वाले होने चाहिए इतने आसन कि आपका उसी दिन बनाने का मन करे,बस क्या नहीं करना है ये हिदायत ज़रूर हो..

ये २०० ग्राम मशरूम में १०० ग्राम मटर ५ ग्राम लॉन्ग इलायची ये समझ कभी आई नहीं...
ये होटल वालों के लिए ज़रूरी होगा...हमने तो सब अन्दाज़े से किया है....खाना बनाना साइंस कम मूलत: एक आर्ट है, वेस्टन म्यूजिक की कोम्पोजीशन सुनी होगी आपने बिलकुल तयशुदा 8 मिनट 15 सेकंड...इन्डियन क्लासिकल म्यूजिक कोई तय सीमा नहीं 10 मिनट भी 1 घंटे भी या पूरी रात एक ही बंदिश चलती रहे..

सब कुछ देश, काल, वातावरण, मिजाज़, तबियत और रंग देख के तय होता है..

मेरे लिए खाना बनाना परफोर्मेंस की तरह है...कई दफा रसोई में जाने से पहले कुछ तय नहीं होता या तय होता भी है तो कुछ और बनाने लगता हूँ जैसे धनिया आलू बनाने गया और सरसों-खटाई के मसाले में आलू बना दिया...

पुरुषों का खाना बनाने से अलग ही लगाव होता है। अमूमन भारतीय परिवारों में खाना बनाना पुरुष की जॉब नहीं होती।

सुनने में अजीब लगे पर समाज की सच्चाई यही है सो वो शौकिया ही किचन में जाता है..सो वीकेंड- वीकेंड या कभी कभार का खाना बनाना बोझ नहीं लगता.. और आमतौर पर पुरुषों को गृहस्थी के चवन्नी भर समझ नहीं होती यानि अगर किसी के घर के बजट में महीने भर में १ किलों घी लगता है तो पुरुष १ ही दिन में ढाई सौ ग्राम ख़तम कर दे...

पितृ सत्ता के पोषण और उपरोक्त कारण से कि महीने का बजट गड़बड़ न हो इसलिए भी पुरुषों को कभी कभी रसोई में जाने की इजाज़त मिलती है..

खाना बनाना, रसोई का एक हिस्सा है और रसोई गृहस्थी का एक हिस्सा...मैंने पहले कभी ऐसे सोचा नहीं था पर शादी के बाद मेरी बेगम प्रसन्ना ये सब बड़े चाव से देखती, समझती है और जाहिर सी बात है, मुझसे इन तमाम विषयों पर बातें भी करती है तो मैं भी इस विषय को सोच समझ बढ़ा रहा...

हम लोगों की अम्मा कितने छोटे से बजट में क्या तो शानदार रसोई मैनेज करती थी..कितना तेल लगा, कितने की सब्जी आई, कितने का गोश्त, सिलेंडर 30 दिन चला कि 31 उनको सब ध्यान होता था या उनके डायरी में नोट.. 

ये सब मुझे तो नृत्य की तरह लगता है, और जिनको नहीं लगता है, उनके लिए खाना बनाना, रसोई आदि सब काम लगेगा. मैं पहले ही दर्ज कर चूका हूँ बींग प्रिवेलेज़ मैं ये नृत्य कभी कभी करता हूँ, और अपनी च्वाइस से

रोज़ करूँ तो ज़ाहिर सी बात है कि काम लगे पर वो लोग भी कमाल हैं जो रोज़ करते हैं या थे और उनके लिए काम नहीं हमेशा नृत्य ही रहा...। हम सलाम कर सकते हैं अपनी अम्मा लोगों को...

सबसे बड़ा कमाल है, सीमित गृहस्थी लिए, कितनों की रसोई अक्षय पात्र (माइथोलॉजी में इस्तेमाल बर्तन जिसमें खाना कभी ख़तम नहीं होता था) की तरह होती थी/है..घर में किसी समय कोई आ जाए, कितने लोग आ जाये थोड़ी देर में आप के सामने एक के बाद एक चीज़े आ रही हैं..

ये अन्नपूर्णा अम्मा लोग हमारी तरह रेडी टू ईट आइटम नहीं रखती थी न परोसती थी, आज भी ऐसे लोग मिल जाए पर १-२ पीढ़ी बाद ये सब दन्त कथा लगेगी...

 जबकि अब तो साइंस ने बहुत कुछ आसन कर दिया है. .लेकिन आपको अपने हाथ से बना के लोगों को खिलाने में सुख नहीं आता तो ये खिलाने का दौर ख़त्म ही हो जायेगा...।
हम सेल्फ सेंट्रिक ह्यूमन का बस खाने का दौर बचेगा...हम ख़वास लोग...

पहले घर में खीर के लिए अलग चावल, रोज़ खाने में मेरा पसंदीदा काला नमक चावल, जो जब पकता था, हाय पूरा घर गमक जाता था..कभी कभार बासमती... ।
अब हमारी इन्द्रियों को, कोन्सिअस को मसालों के शोर ने भोथरा कर दिया है ख़ास कर कैम्कल फ्लेवर..१ बूँद डाली और जिसका चाहा रंग और स्वाद कर दिया...

खैर ! इसी तरह गेंहू बाजरा चना या मुर्गे या बकरे या मछली..(जैसे गंगा में ही पायी जाने वाली सिंहा जो गरम मसलों के साथ पकती और गोश्त सी लगती ( भारत में अमूमन मछली सरसों के/ ठन्डे  मसाले में बनती है)) की भी अलग अलग किस्म घर में आती थी...पर प्रकृति से हम दूर और दूर बहुत दूर होते जा रहे...और प्रकृति बस कोई बाहर की ही चीज़ नहीं है भीतर भी है सो हम ख़ुद से भी बहुत दूर निकल आयें हैं...ध्यान से कहीं इतने दूर न निकल आयें कि वापस ही न लौट पायें..

  


 

 

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काम यात्रा : (एकल नाटक)

काम यात्रा :  (एकल)

-मस्तो

 {इस  नाटक का प्रदर्शन  अभी नहीं हुआ है}


प्रथम उल्लास

 

(नृत्य करते हुए स्त्री का प्रवेश )

 

नमस्कार ! सभी कलाओं में मुझे नृत्य बेहद पसंद है देखिये ना यहाँ कला और कलाकार २ नहीं रहते एक हो जाते हैं तभी वो अति सुन्दर होता है पेंटिंग में पेंटिंग अलग और उसको बनाने वाला अलग,  सिंगिंग में कुछ महान गायक वहां पहुचते हैं जहाँ वो सरापा..आरोह अवरोह का रूप हो के ध्वनि हो जायें पर एक नर्तकी शुरू से आख़िर तक सर से पाँव तक शुद्ध कला होती है कला और कलाकार एक हो जाते हैं non-duality

कोई दूसरा नहीं अद्वैत बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है , ”An ocean is that one seer, without any duality [Advaita]; this is the Brahma-world, O King. Thus did Yajnavalkya teach him. This is his highest goal, this is his highest success, this is his highest world, this is his highest bliss. All other creatures live on a small portion of that bliss.”

मैं बात करने चलूंगी तो एक सिरा पकडूगी...मैं कपिल मुनि का आश्रय लेती हूँ.. और सांख्य दर्शन से बात प्रारम्भ करती हूँ

अद्वैत से

यानि कोई दूसरा नहीं है| वो जो एक  है | वो स्वतंत्र है...मुक्त | पर खेल एक से कहाँ होगा | वो जो एक पदार्थ है | वो मैं हूँ मैं अनंत काल से सो रही थी| पर इस काल का आभास तो तब हुआ | जब मैं जागी | देखा क्या ! काल भी सो रहा है| बताओ ? ये भी कोई बात है...मैं जो पदार्थ हूँ ..डार्क मैटर काला पदार्थ| उठ बैठी.और समय सो रहा है | पहले तो मैंने अकेले कुछ खेलना चाहा पर बोर होने लगी...फिर खुद से कहा काली इस काल को उठाओ और मैं चढ़ बैठी उस ... वो कहता रहा, मुझे सोने दो..मुझे सोने दो| पर मने एक न सुनी  | वो उठते ही बोला, क्या है ? | मैंने कहा मैं बोर हो रही | तो ? | अरे उठो..उठो...उठोSS मुझे खेलना है...और वो उठ खड़ा हुआ मेरे साथ खेलने

और यूँ ही अपनी धुरी पर घूमते...अक्सर हम बदल लेतें हैं किरदार| और हम दो हैं भी कहाँ | हम दोनों का स्वभाव है मुक्त रहना पर जैसे पकड़म-पकडाई में कोई एक भागता है स्वतंत्र रहना चाहता है और दूसरा पकड़ना

मैं प्रकृति हुई अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु समेटे और वो पुरुष यानी जीवात्मा ! रूह !

रूह का स्वभाव है स्वतंत्रता | विकास !

और मैं शरीर और ये दुनिया बन के उसको बांधती हूँ..इस शरीर के पांचो तत्व को एक अवधि खत्म करने के बाद अपने में मिला लेती हूँ मृत्यु पे पहले वायु, फिर अग्नि और फिर आकश और जल के जाने पे पृथ्वी में पृथ्वी का शरीर मिल जाता है.

मैं क्यों पकड़ती बांधती हूँ ? अरे खेल के लिए | पकड़म- पकडाई में कोई चोर बनेगा तभी न कोई भागेगा और खेल होगा..(बुद्धू हो बिल्कुल) | आखिर में पाना तो स्वतंत्रता है...पर मैं न फिर भी बोर हुई....तो पुरुष को पुन: पुरुष और स्त्री में तोड़ मैं भी खेल में दो तरफ़ा शामिल हो गयी...

अच्छा पता है मैं न बस इस दुनिया में खेलती.. दूसरी दुनिया में तो बस पुरुष का भुगतान है...आपने सभी धर्मों के जन्नत दोज़ख स्वर्ग नर्क हेवेन हेल के description पढ़ें हैं सब पुरुष पॉइंट ऑफ़ व्यू से उनके लिए..मैं न जाती जन्नत दोज़ख...अपना तो अलग ही हिसाब क्योकि मैं ही तो खेल बनाया शुरू किया.

सांख्य का अर्थ जानते हैं आप ? नंबर्स  और खेल है इन्ही तयशुदा नंबर्स की कोडिंग का...जटिल है आप समझ नहीं पाओगे....इस खेल के लोगों को लगता है 4 पड़ाव है धर्म अर्थ काम मोक्ष  पर चौथा तो फाइनल डेस्टिनेशन है वो तो अपने आप मिलेगा वो तो मुक्ति है स्व भाव ! आप धर्म पकड़  रहे...अर्थ साध रहे....काम समझने से पहले ही मोक्ष की तरफ भागे गयी भैंस पानी में..इन लोगों के लिए मोक्ष की असल मीनिंग मिलेगी यूँ भी संस्कृत शब्दकोष में मोक्ष की मीनिंग डाउन फॉल है       

वीडियो game खेले वाले मेरी बात समझेगे..पिछला स्टेज क्लियर नहीं हुआ तो अगला स्टेज कैसे मिलेगा...

काम यानि आपकी क्या इच्छाएं हैं डिजायर है उनको परत दर परत उघाड़ना और डिजायर के पार जा के ये स्टेप पार होगा...अंकुश लगा के...नियंत्रित करने का जो प्रयास किये वो असफल रहे इन्द्रियाँ जो इच्छाओं को ...काम को पूरित करती.. उनपे, मस्तिष्क डिक्टेटर शिप नहीं चला सकता वहां वहां democracy ही चलेगी .. मन जो इन्द्रियों का राजा है जब तक उनका दोस्त नहीं हो जाता तब तक कोई पार कहाँ ?

ये राज़ है बस कुछ विरले योगी ही इसको जानते हैं लोगों को लगता है योगी का मन इन्द्रियों को जीत चुका है पर असल में वो उनसे दोस्ती कर चुका होता है और सब इन्द्रियों से खूब स्वाद लेता है और मुक्त बना रहा है इसलिए ही तो कहा गया है योगी परम भोगी

ये जो हमारी डिज़ायर है इच्छाएं इनके सेंटर में sex ही है हाँ आपका काम..ओह ये सिगमंड फ्रायड भी कह रहा था पढ़ा था आपने ?

 

हमारी इच्छाएं `

क्षीर सागर सी हैं

जिसमें

हम डुबकी लगा रहे

पर कहाँ तक पहुचे

क्या क्या देखा

जान नहीं पाते

ये श्वेत वर्ण

जो सब कुछ लौटा देता है

अकेले पार नहीं होता

दम घुंट जाएगा

इसलिए

तुम और मैं हूँ

यानि हम

 

 

Democracy से डर तो लगता है ? किसको ?? अरे वो जो शासक वर्ग है.. क्यों ? कोई भी टॉप पे पहुँच जाएगा..फिर राजा तो राजा बना रहेना चाहता है अपनी स्वतंत्रता के लिए...

देवता भी स्वतंत्रता चाहते हैं इसीलिए शासक व्यवस्था का हिस्सा बने रहना चाहते हैं...सत्य, त्याग और बराबरी जब कोई राजा अपना लेगा तो वो राजा का जनता का हिस्सा हो जायेगा कथा है दैत्य राजा बलि जब स्वर्ग पहुचे तो उनकी सत्य निष्ठा, तप, प्रेम, त्याग और बराबरी के बर्ताव के कारण जो तेज़ उत्पन्न हुआ सभी देवता स्वर्ग से भाग गए

अब आप बताओ  सद्गुण देख भाग गए ? देवता और दैत्य किसका दामन पकड़ें फिर हम और उस शैतान का शुक्रिया अदा करें जिसके कारण हमारी अक्ल ठिकाने लगी ?

खैर ! दूसरी कहानी सुनती हूँ जब तारकासुर ने सब कुछ जीत लिया और देवता उसके यहाँ जी हजूरी करने के लिए विवश हो गए तो उन्होंने उपाय पता किया ब्रह्मा जी ने देवताओं को बताया महाकाल के पुत्र द्वारा उसकी मृत्यु संभव है

महाकाली हिमालय के यहाँ जन्म ले चुकीं थी..पर शिव तो तपस्या में लींन...देवताओं ने काम देव को काम पे लगाया...और  उपाय तो न हुआ, शिव की क्रोधाग्नि से काम देव जल के स्वाह : हो गए

 

पर पार्वती जी ने तो मन बना लिया था इन्ही शिव से विवाह करना है शिव राज़ी नहीं हो रहे ये वो दौर था कि लड़कियां भी प्रणय निवेदन यानि प्रपोज़ करने का सोच सकती थी खैर पार्वती को शिव को राज़ी करना था और बताना है बॉस कौन है

 

शिव समाधि टूटने के बाद बैठे थे सप्तऋषि आते हैं पार्वती की तपस्या के बारे में बताते हैं जिसमें वो अपने शरीर को तपा रही थी...ताकि शिव विवाह के लिए हाँ कह दें..नटराज ने जब पार्वती को देखा तो मोहित हुए बिना कैसे रह सकते थे...पर उन्होंने छत्र- दण्ड से युक्त एक जटाधारी वृद्ध ब्रह्मण का वेश बनाया और गिरजा जी के वन में प्रवेश किया..और प्रीति पूर्वार्क उत्सुकता से देवि के समीप पहुंचे 

वहां देवि अपनी सखियों से घिरी बैठी थी वेदी के ऊपर  

वृद्ध ब्रह्मण को देखके उनको प्रणाम किया अतिथि की पूजा और भोजन इत्यादि का प्रबंध किया और उनसे पूछा, आप के तेज़ से पूरा वन प्रदेश आलोकित हो रहा हर तरफ शान्ति है  

आप ब्रह्मचारी रूप धारण किये हुए कौन है ? कहाँ से आयें हैं ?

मुनि के रूप में नटराज बोले मैं अपनी इच्छा से हर जगह भ्रमण करने वाला और सबको सुख पहुचाने और उपकार करने वाला हूँ..
बातों बातों में गिरिजा ने जब बाते वो शिव को पति रूप में पाना चाहती हैं तो उस ब्रह्मण ने दुःख प्रकट करते हुए कहा,
तुम इतनी सुकोमल, पवित्र.. हिमालय राज की पुत्री मैं उस रूद्र को जनता हूँ बैल की सवारी करता है विकृत मन वाला वैरागी सदा अकेले रहने वाला है ..कहाँ चक्कर में पड़ी  हो मुझे तो नहीं सही लग रहा तुम दोनों के स्वभाव में कितना विरोध है... इसके बाद वृद्ध ब्रह्मण ने और बुराई की

उधर देवि का क्रोध बढ़ रहा था और फिर वो ब्रह्मण को गरियाना शुरू करतीं हैं, मैं तो आपको महात्मा समझ रही थी लेकिन आप छी: ! अगर आप अतिथि न होते तो मेरे द्वारा आपका वध हो गया होता. और आप तुरंत यहाँ से निकल जाइए ... और इधर पार्वती मुड़ती है शिव उनका वस्त्र पकड़ लेते हैं अपने असली रूप में आ जाते हैं

शिव पुराण में जो श्लोक हैं उसका शब्दश: अनुवाद होगा हे प्रेमनिर्भरे ! तुमने मुझे अपना दास बना लिया है तुम्हारे सौंदर्य को देखे बिना मेरा एक-एक क्षण युग के सामान बीत रहा है...लज्जा त्यागो क्योकि तुम्ही मेरी सनातन पत्नी हो..

ये लज्जा त्यागना ही प्रणय निवेदन है या कहूँ प्रेम निवेदन लव मेकिंग खैर ! देवि ने कुछ और सोचा हुआ था उन्होंने कहा कि सुनो इतना ड्रामा करते हो तो नट का रूप धर के आओ और भिक्षा में मेरे माँ पिता से मुझे मांगो अगर वो अपनी कन्या दान दे दें तो ठीक   

अब शिव करते क्या, नट का भेष बनाया लाल चोगा बाएं हाथ में श्रृंग, श्रृंग समझते हैं सींग से बना एक वाद्य यंत्र होता है तो बाये हाथ में श्रृंग दायें हाथ में डमरू पीठ पर कंथा ..पाँव से आती छम छम की आवाज़ लिए पहुचें हिमालय और मेनका के पास उनके नगर

सब नगर वासी बच्चे स्त्री वृद्ध निकल के कौतूहल से खेल देखने लगे जोगी का

 

 

जोगी का संगत खेल

 

खेल..

तमाशा..

यार..

खिलौने..
:

मैं भी

चुप

और

तू भी

चुप है...
:

परिचय देता

गुरु आत्मा

चेला मनवा

खेल खिलाये

खेल भी देखे

मौन रहे

और बोल भी बोले

:

बोल रे जोगी

मन के भीतर 

जो भी उमड़े

तू तो जाने

मन ही मंतर
:

इस भूमि में

पंच दरवाज़े

पांच खिड़कियाँ

जिनमें घूमें पांच परिंदे

:
पकड़ सके तो

पकड़ परिंदे
पकड़ न आये ?

कर के दोस्ती

पाँचों पंछी

जोगी के कन्धे बैठे

तू नाप सके तो

नाप ले हर क्षण

जोग हमेशा

कम ही पाए..


खेल निराला जोगी खेले..

काल हुए वो 

काल ही पूजे
हारे हर दम

दम दम पाए !

 

 

उत्तम नृत्य और गान देख के  मेनका दें स्वर्ण मुद्राएँ देनी चाहि तो नट ने लेने से इनकार किया और दान की भिक्षा में पार्वती को माँगा...मेनका नाराज होती है बुरा भला कहती हैं, पार्वती पास से सब देख हँस रही हैं... नट को और हिमालय नट को नगर से बाहर भेजने का हुक्म ज़ारी करते हैं

पर कोई बहार नहीं निकाल पाता

कभी नट रुपी शिव को कोई विष्णु रूपधारी कभी ब्रह्मा कभी सूर्य रूप धारी रूप में खेल खेलते दीखते हैं हिमालय को पर जब पिता को पार्वती का नट के साथ मनोहर हास करते देखते हैं समझने में देर नहीं लगती और फिर दान दिया जाता है है और पार्वती -शिव जी का ब्याह होता है

वैसे  वो दौर और आज का पिता तुरंत जान लेते हैं बेटी किसी से बात कर रही है तो उसमें इंट्रेस्टेड है कि नहीं..

खैर ! इसके बाद भी ब्याह से पहले शिव रूप बदल के डेटिंग के लिए पारवती से मिलने आते रहे हैं...उसकी कथा फिर कभी !

कथा भटक गयी तारकासुर के मृत्यु की कथा शुरू हुई थी 

विवाह उपरान्त महाकाल महाकाली के साथ देवदारु के वन में जाते हैं, नंदी अपनी पीठ पे बैठा कर उनको ले जाते हैं वन के एक गुफा में दोनों दाख़िल होते हैं जिसे भीतर बहुत मनोरम तरीके से सजा कर रखा गया है

नंदी बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे होते हैं...महाकाल उन्हें एक ग्रन्थ लिखने को कहते हैं

देवता तो बेहद खुश हैं कि अब शिव पुत्र पैदा होगा और तारकासुर का अंत होगा और फिर देवताओं को पुन: राज्य मिल जाएगा और इंतज़ार करने लगते हैं...वर्ष पे वर्ष बीत ते चले गए देवता इंतज़ार कर रहे और नंदी इस इंतज़ार की वेला में हर वर्ष अपने ग्रन्थ में एक अध्याय लिखते चले जाते

यूँ ही महाकाली ने महाकाल का वरण  नहीं किया जो रति क्रीडा में इतने निपुण हैं कि कल्पना से परेय है


रावण शिव तांडव स्त्रोत में कहते हैं
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-

प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥

 

जो पावती के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।    


हो सकता है आपको अटपटा लगे स्तन के अग्रभाग क्या पर संस्कृत में निपल्स शब्द का के लिए कोई शब्द नहीं है और स्तन यूँ भी जनन अंग नहीं है सेक्सुअल ओरगन नहीं है ये तो आपने बना दिया है अपनी फैंटेसी में .

 

शिव पार्वती विवाह से पहले रामायण काल में तो स्त्री और पुरुष सिर्फ कमर से नीचे का हिस्सा ही ढकते थे ऊपरी हिस्सा खुला होता हाउ चन्दन आदि से लेप किया हुआ

 

खैर ! महादेव और महादेवि भीतर हैं और एक दो दस सौ दो सौ तीन सौ पांच सौ आठ सौ और हज़ार साल हो गए शिव पार्वती बहार नहीं आये

नंदी एक हज़ार अध्याय का एक ग्रन्थ लिख चुके थे उन्होंने सोचा ग्रन्थ अपनी पत्नी सुयशा को दिखा लें...और उनके उस जगह से हटते ही देवताओं की हिम्मत हुई कि पता करें और अग्नि कबूतर बन के गुफा में जाते हैं, पार्वती को पर पुरुष का आभास होता है वो कमल के चादर से खुद को ढकती हैं इस सब सिलसिले में सिव का वीर्य बहार आता है जो अग्नि धारण करते हैं और वो गंगा में जाते हैं फिर कैसे बांसों के झुरमुट जो पार्वती की तपो भूमि रहा है कार्तिकेय का जन्म होता है और कैसे कृतिकायें उनको पालती हैं  और उनको देवताओं का सेनापति बनाया जाता है और वो स्कंद कुमार कैसे तारकासुर का अंत करते हैं कम या ज्याद: आपको पता ही होगा

मैं आपका ध्यान उस एक हज़ार अध्याय वाले ग्रन्थ पे लान चाह रह थी जो नंदी ने लिखा था वो ही काम शास्त्र कहलाया...इस ग्रन्थ का कोई हिस्सा प्राप्त नहीं है

पर इसका आधार बना के अन्य ग्रन्थ लिखे गए उन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है

 

महा रात्री

 

दो बच्चों ने

एक दूसरे को

खिलौना समझ कर

हैरत से छू छू के देखा

मगर बच्चे थकते कहाँ हैं खेल से

बरसों बाद

चादर गिरी बिस्तर से

एक कबूतर

समय बन

फुर्र से खिड़की से निकला


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गाँधी का धर्म

हम सब पर पहला असर घर का होता है, गाँधी पर भी पहला असर अपनी माँ का हुआ...जो एक वैश्य परिवार की धार्मिक महिला थीं.
हम अभी आज के दौर की  नहीं है डेढ़ सौ साल पहले की बात कर रहें हैंजब जाति धर्म भेद-भाव आदि का  समाज और जीवन में बहुत गहरा असर था...जिसका हल्का होता रंग अब भी  मौजूद है, जो समय समय पे कहीं भी बहुत गाढ़े रूप में दिखाई देता है..

वैष्णव परिवार के संस्कार ने उनके भीतर नैतिकता का पहला बोध कराया और वो सही और ग़लत की परिभाषा में चीज़ों को ढालना शुरू कर पाए..

गाँधी हर दौर में अपनी परिभाषाओं को और साफ़ और ठीक और दुरुस्त करते रहें हैं...

चेतना के विकास होने पे हर कोई उम्र के पड़ाव पे और निखरता जाता ही है आपने अपने भीतर भी महसूस किया होगा..

इसलिए हिंदुस्तान से इंग्लैण्ड जाने वाले गाँधी के धर्म, दर्शन व् नैतिक शास्त्र सम्बन्धी विचार, या  इंग्लैण्ड से हिंदुस्तान आने वाले, या हिंदुस्तान से दक्षिण अफ्रीका जाने वाले, या दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान आने वाले, या हिन्द स्वराज लिखने से पहले और उसके बाद वाले, यां १९३५ के बाद वाले गाँधी में आप कहीं बड़ा और कहीं सूक्ष्म रूप से अंतर पायेंगे

गाँधी जी के अनुसार लक्ष्य हमेशा आगे भागता जाता है जितना हम प्रगति करते जाते हैं,उतनी ही अपनी अयोग्यता का पता चलता है संतोष सतत प्रयास करने में है प्राप्ति में नहीं   

जैसा कि मैंने पहले कहा गाँधी की चेतना पे पहला असर घर का हुआ..बचपन में ही रामायण गीता व अन्य वैष्णव साहित्य का अध्ययन गाँधी कर चुके थे.. इसके बाद सबसे ज्याद: प्रभाव  जैन धर्म पड़ा जो उन्हें श्रीमद राजचंद जी से मिला.. गाँधी अपने जीवन में हुए बदलाव का श्रेय वह उन्हें देते रहे हैं.

श्रीमद राजचंद्र जैन कवि, दार्शनिक, स्कॉलर और रिफॉर्मर थे. गुजरात के मोरबी में जन्मे रामचंद्र ने 7 साल की उम्र में दावा किया था कि उन्हें पूर्व जन्म की चीजें याद हैं. उन्होंने अवधान, 'मेमोरी रिटेंशन और रीकलेक्शन टेस्ट' का प्रदर्शन किया था, जिससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली. उन्होंने दार्शनिक कविता 'आत्म सिद्धी' लिखी जो काफी प्रसिद्ध हुई.

महात्मा गांधी और राजचंद्र की मुलाकात साल 1891 में मुंबई में ही हुई. इसके बाद गांधी अफ्रीका चले गए, लेकिन चिट्ठी के जरिए रामचंद्र से उनका संवाद बना रहा. गांधी ने अपनी किताब 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में इसका उल्लेख किया है.

 २०१७ नरेंद्र मोदी जी ने राजचंद्र पे डाक टिकट ज़ारी  किया  है    

जीवन में श्री रामचंद जैन  द्वारा जैन धर्म के रिविज़न से पहले इंग्लैण्ड में कई बुद्धिजीवियों ने उन्हें प्रभावित किया और वहां रह कर वी ईसाईं धर्म को भी जान पाए कहा जाता है रोम के सैंट पीटर्स में जब उन्होंने ईसा मसीह की मूर्ती देखी तो उनके आंसू निकल पड़े, महात्मा गाँधी मन में ईसा के जीवन तथा व्यक्तित्व के प्रति अपार श्रद्धा थी इस प्रभाव के लिए कुछ सीमा तक गाँधी टालस्टाय के ऋणी हैं टालस्टाय ने “ the kingdom of God is within you” में ईसाई शिक्षा को नए रूप में ढाला था, कष्ट झेलने की शक्ति और उसकी गरिमा के जो इमेज को अपने लफ़्ज़ों से टालस्टाय ने रची गाँधी जी के सत्याग्रह विचार का यह प्रेरणा स्रोत बना

इसी तरह अमेरिकन विचारक थोरू के प्रभाव को भी स्वीकारा थोरू का सामजिक अवज्ञाके विचार में गाँधी को नयी संभावनायें लगी

इसके इलावा गाँधी ने अपना परिचय इस्लाम तथा जोरास्ट्रींअन धर्मों से भी बढ़ाते हुए रसकीन तथा उस समय के कुछ फेमस थियोसोफिस्टको भी पढ़ा   

गाँधी विचारों को बस विचारों तक सीमित नहीं रखते थे विचार को अभ्यास में लाते  हैं और शुरू होता है गाँधी के प्रयोगों का सिलसिला..

जो विचार अभ्यास में नहीं लाया जा सकता गाँधी के लिए वो फ़िज़ूल है... अपने गीता की व्याख्या अनासक्ति योग में गीता के वो श्लोक जो गाँधी को प्रयोग के लायक नहीं लगे उन्होंने वो कम टेक्स्ट देते हैं या छोड़ भी देते हैं गाँधी लोगो के हिसाब से शब्द व भाषा चयन करतें हैं उनको पता है इंग्लिश पढने सुन ने वाले लोग , या गुजरती या हिंदी भाषी की चेतना, समस्या, विचार, और समझ कई जगहों पे अलग अलग है इसी लिए एक ही विषय पे उनके उदारहण,किसी परिभाषा की सरलता व जटिलता अलग अलग मिलेगी आप गुजरती, इंग्लिश और हिंदी लेखों को पढ़ते हुए आसानी से ये अंतर देख सकते हैं     

गाँधी के धर्म सम्बन्धी व् नैतिक विचार पुख्ता और साफ़ तो हैं पर उन्होंने दर्शन शास्त्र की कसौटी पे इसको कसने की कोशिश नहीं की या शायद ज़रूरी नहीं समझा

हमें गाँधी के दर्शन को समझने के लिए परत दर परत समझना होगा

गाँधी अपनी आस्था में सत्य और ईश्वर को एक कर देते हैं और ईश्वर को समझने जानने की चेष्ठा में सत्य को समझने की यात्रा प्रारंभ करते हैं

ये कोई शास्त्रीय रूप नहीं है पर हम गाँधी के धर्म को समझने के लिए उनके धर्म सम्बन्धी मूल ढांचे को समझ के आगे बढ़ते हैं जो की वैष्णव धर्म है जो पूर्णया ईश्वर वादी है कर्म और पुनर्जन्म पे ऐतबार करता है वैष्णव मत वेद और उपनिषदों को भी महत्त्व देता है

वैष्णव मार्ग मूलत: भक्ति मार्ग है गाँधी के राम और कबीर के राम में कभी कभी समानता भी देखने को मिलती हैं अपने कई विचारों और लेखों में गाँधी निर्गुण ईश्वर की बात कहते मिलते हैं

पर मानवीय गुणों के साथ जोड़ने पे गाँधी के ईश्वर मानव स्वरूप हो जातें हैं गाँधी कई संतों के जीवन और उनकी वाणी से भी प्रभावित रहे हैं

शंकर का  अद्वैतवाद इसका दार्शनिक ढांचा खेंचता है ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या

आपकी नज़र गयी कि  ब्रह्म यानि ईश्वर सत्य है, गाँधी के पास कई  रास्तों से आया...पर गाँधी  गॉड इज ट्रुथ को ट्रुथ इज गॉड में तब्दील कर देते हैं जो मेरी समझ से इस वैष्णव भक्त के पास ला शऊरी तौर पे शैव धर्म से आया, जहाँ सत्यम शिवम् की बेसिक लकीर है

सत्य ईश्वर है..

मूलत: धर्म ईश्वर सत्य है कह ही रहे थे या अभ्यास कर रहे थे, गाँधी ने बस सत्य ईश्वर है यह कहने पे जोर दिया या इसे मन्त्र का रूप दे दिया

आप माय एक्सपीरिमेंट विथ ट्रुथ को माय एक्सपीरिमेंट विथ गॉड के चश्मे से देखने की कोशिशकर सकते हैं

गाँधी जिसे दुनिया महत्मा मान रही मास लीडर के साथ आध्यात्मिक संत भी मानती है वो हमेशा कुछ सीखने अपने अनुभवों में इजाफा करने का किस तरह हर संभव प्रयास करता है

१९३५ में परमहंस योगानंद ( एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ योगी के लेखक एवं योग गुरु) जब वर्धा आते हैं तो गाँधी योग अभ्यास के विषयों पर उनसे चर्चा करते हैं और क्रिया योग में दीक्षा की इक्षा ज़ाहिर करते हैं

गाँधी की बातें नीरस या बोझिल कही नहीं हैं धार्मिक, नैतिक शिक्षा आदि  सम्बन्धी गभीर विषयों पे बात करते करते गाँधी का हास्य बोध कहीं कम नहीं होता जैसे पहली शाम अहिंसा आदि विषयों पे बात करने के बाद जब योगानंद जब जाने लगते हैं गाँधी उन्हें एक तेल देते हुए कहते हैं ,”स्वामी जी आश्रम के मच्छर अहिंसा के विषय में नहीं जानतें

गाँधी के आलोचक गाँधी के ईश्वर विचारमें बौद्धिकता की पूर्ण उपेक्षा की बात कहते हैं क्योकि गाँधी इसपे कोई तार्किक बात न कहते ईश्वर की स्थापना के लिए अंतरात्मा की पुकार अन्तर की आवाज़ को दोहराते हैं गाँधी किसी भी विचार को (यानि प्रश्न ) अपने भीतर रखते और ईश्वर की आवाज़ को (यानि उत्तर) को भीतर सुन ने की कोशिश करते

I subscribe to the belief or philosophy that all life in its essence is one …This belief requires a living faith in a living God who is the ultimate arbiter of our fate.

निश्चित तौर पे आत्मा और परमात्मा के साथ आप कर्म के सिद्धांत और पुनर्जन्म पे ऐतबार करते हैं तो भाग्य पे विचार करेंगे ही अब इसके आगे बढ़ते हुए क्या गाँधी जी भाग्य में परिवर्तन के लिए मंतर जंतर ताबीज़ बूटी रतन पे ऐतबार करते थे

तो इसका जवाब है नहीं गाँधी इन सबका खंडन करते रहे...गाँधी एक योगी के भांति अपने कर्मों द्वारा भाग्य निर्माता पे जोर दिया शुद्ध विचार सत्य को ह्रदय में बसा के सब कार्य ईश्वर को समर्पित कर के कर्म करने को ही आगे रखा अपनी गीता की व्यख्या में ज्ञान, भक्ति और कर्म में उन्हने अपनी व्याख्या में कर्म को सर्वोपरि रखा

वैसे गुजरात में और गुजरात से सटे महारास्ट्र में संतों का व्यापक असर था पर गुजराती और वैश्य समाज यूँ भी कर्म प्रधान समाज है व्यापारी वर्ग ज्याद: है

शायद यह समझ आस पास की सोसाइटी से गहरी बैठी हो गुजरात से निकलने के बाद ब्रिटेन भी व्यपार केंद्र ही रहा गाँधी के इर्दगिर्द और इन्ही सोसाइटी को गाँधी ने आगे बढ़ते हुए और व्यवस्तिथ होते हुए देखा

गाँधी की नज़र में ईश्वर और ईश्वरी विधान २ चीजें नहीं हैं

गाँधी ईश्वर को प्रेम का ही एक रूप मानते थे गाँधी के अनुसार हर किसी में ईश्वर है इसलिए हर किसी में प्रेम की शक्ति है और उसे ही जागृत कर ईश्वर को महसूस किया जा सकता है

मुझे लगता है यह परिभाषायें भारत के भक्ति काल में उठी खुशबु से ही उनके भीतर समां गयी क्योकि उस से पहले भारतीय धर्म में प्रेम शब्द मिलता ही नहीं हैं संस्कृत में तो यह शब्द ही नहीं है काम की बातें हैं प्रेम की नहीं ...

गाँधी अन्य भारतीय दार्शिनकों की भांति मोक्ष को मानव जीवन का अंतिम ध्येय स्वीकार किया है पर उनके अनुसार मोक्ष के लिए संन्यास लेने या जीवन छोड़ने की आवश्यकता नहीं है बल्कि पीड़ित एवं अभावग्रस्त मनुष्यों की सेवा का निस्वार्थ एवं सतत प्रयास हमें मोक्ष दिलाता है  

एक और बात गाँधी की ईश्वर सम्बन्धी ख़ाका इतना बड़ा है और ठोस भी की उसपे सारे धर्म एक राय रखते नज़र आते हैं

गाँधी के धर्म में सिर्फ अपने उत्थान पे ध्यान नहीं है चूँकि सबके भीतर ईश्वर हैं सबके भीतर शुभता है  हर मनुष्य भीतर में अच्छा मनुष्य है भले ही व्यवहार में क्रूर, स्वार्थी, कपटी आदि हो सकता है अगर उसकी शुभता को जगाया जाए वह अच्छा मनुष्य हो जायेगा...यहाँ से ही सेवा व प्रेम भाव का उदय होता है और सामूहिक उत्थान पे गाँधी अपना और सबका ध्यान केन्द्रित करते हैं.

“I refuse to suspect human nature. It will, is bound to, respond to any noble and friendly action.”

Young India 4-8-20    

“ In the application of the method of non-violence, one must believe in the possibility of every person, however depraved, being reformed under human and skilled treatment.”

Harijan 22-2-42

शुभ साधनों द्वारा शुभ लक्ष्य की प्राप्ति

साध्य और साधन पे गाँधी की बात भी बहुत ज़रूरी है साध्य यानी लक्ष्य क्या है और साधन यानि उसे कैसे पूरा किया जा रहा है

अपनी बातचीत में लेखों में गाँधी साधन पे बहुत बात करते थे जैसे ईश्वर ने हमें शक्ति दी है वो साध्य पे नहीं साधन पर  लगायी जानी चाहिए      

साध्य को पाने के लिए गाँधी जल्दी में नहीं हैं क्योकि उनका दृढ विश्वास है अगर सही साधन से लक्ष्य नहीं पायगा लक्ष्य का विघटन हो जायेगा

जैसे लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता साधन अहिंसा, सत्याग्रह अब साधन को आत्मसात न कर पाने के कारण लक्ष्य मिल के भी कितनी हानि हुई..गाँधी के इस विचार की पुष्टि चौरी चौरा काण्ड के बाद आन्दोलन वापस लेने पे समझ आती है गाँधी कहाँ तक देख पा रहे थे...

हिंसात्मक ढंग से प्राप्त स्वराजभी हिंसात्मक स्वराज्य हो जायेगा, उस प्रकार का स्वराज विश्व और भारत दोनों के लिए हानिकारक होगा

-Ibid 17-7-21

गाँधी के भीतर भारत ही नहीं विश्व की भी चिंता समायी थी वो अपने धर्म की परिभाषा में एक विश्वव्यापी धर्म का ख़ाका खेंच रहे थे एक नए धर्म की ओर और नए समाज की स्थापना हेतु

गाँधी के धर्म को समझने के लिए गाँधी के पसंदीदा पन्द्रवीं शताब्दी के संत-कवि के नरसिह मेहता के भजन को देख के हम आसानी से समझ सकतें हैं जो आज हर कोई जानता है गाँधी का पसंदीदा भजन था ये क्यों था वो इसके अर्थ में छुपा है जिसमें सिर्फ अपने उत्थान नहीं सम्पूर्ण विश्व के उत्थान को कवि दोहरा रहा है

Call those people Vaishnavas who

Feel the pain of others,

Help those who are in misery,

But never let self-conceit enter their mind.

 

Call those people Vaishnavas who

Feel the pain of others,

Help those who are in misery,

But never let self-conceit enter their mind.

 

They see all equally, renounce craving,

Respect other women as their own mother, Their tongue never utters false words, Their hands never touch the wealth of others.

 

They have forsaken greed and deceit,

They stay afar from lust and anger,

Narsi says: I'd be grateful to meet such a soul,

Whose virtue liberates their entire lineage.          

वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड परायी जाणे रे।

पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे॥

 

 

सकळ लोकमां सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे।

वाच काछ मन निश्चळ राखे, धन धन जननी तेनी रे॥

 

 

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।

जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे॥

 

 

 

वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे।

भणे नरसैयॊ तेनुं दरसन करतां, कुळ एकोतेर तार्या रे॥

 

 

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