हम सब पर पहला
असर घर का होता है, गाँधी पर भी पहला असर अपनी माँ का हुआ...जो एक वैश्य परिवार की
धार्मिक महिला थीं.
हम अभी आज के दौर की
नहीं है डेढ़ सौ साल पहले की बात कर रहें हैं, जब जाति धर्म भेद-भाव आदि का समाज और जीवन में बहुत गहरा असर था...जिसका
हल्का होता रंग अब भी मौजूद है, जो समय समय
पे कहीं भी बहुत गाढ़े रूप में दिखाई देता है..
वैष्णव परिवार
के संस्कार ने उनके भीतर नैतिकता का पहला बोध कराया और वो सही और ग़लत की परिभाषा
में चीज़ों को ढालना शुरू कर पाए..
गाँधी हर दौर
में अपनी परिभाषाओं को और साफ़ और ठीक और दुरुस्त करते रहें हैं...
चेतना के विकास
होने पे हर कोई उम्र के पड़ाव पे और निखरता जाता ही है आपने अपने भीतर भी महसूस
किया होगा..
इसलिए
हिंदुस्तान से इंग्लैण्ड जाने वाले गाँधी के धर्म, दर्शन व् नैतिक शास्त्र सम्बन्धी विचार, या इंग्लैण्ड से
हिंदुस्तान आने वाले, या हिंदुस्तान से दक्षिण अफ्रीका जाने वाले, या दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान आने वाले, या हिन्द स्वराज लिखने से पहले और उसके बाद वाले, यां १९३५ के बाद वाले गाँधी में आप कहीं बड़ा और कहीं
सूक्ष्म रूप से अंतर पायेंगे
गाँधी जी के
अनुसार लक्ष्य हमेशा आगे भागता जाता है जितना हम प्रगति करते जाते हैं,उतनी ही अपनी अयोग्यता का पता चलता है संतोष सतत प्रयास
करने में है प्राप्ति में नहीं
जैसा कि मैंने
पहले कहा गाँधी की चेतना पे पहला असर घर का हुआ..बचपन में ही रामायण गीता व अन्य
वैष्णव साहित्य का अध्ययन गाँधी कर चुके थे.. इसके बाद सबसे ज्याद: प्रभाव जैन धर्म पड़ा जो उन्हें श्रीमद राजचंद जी से
मिला.. गाँधी अपने जीवन में हुए बदलाव का श्रेय वह उन्हें देते रहे हैं.
श्रीमद
राजचंद्र जैन कवि,
दार्शनिक, स्कॉलर और रिफॉर्मर थे. गुजरात के मोरबी में जन्मे रामचंद्र
ने 7 साल की उम्र में दावा किया था कि उन्हें पूर्व जन्म की
चीजें याद हैं. उन्होंने अवधान, 'मेमोरी रिटेंशन और रीकलेक्शन टेस्ट' का प्रदर्शन किया था, जिससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली. उन्होंने दार्शनिक कविता
'आत्म सिद्धी' लिखी जो काफी प्रसिद्ध हुई.
महात्मा गांधी
और राजचंद्र की मुलाकात साल 1891 में मुंबई में ही हुई. इसके बाद गांधी अफ्रीका चले गए, लेकिन चिट्ठी के जरिए रामचंद्र से उनका संवाद बना रहा. गांधी
ने अपनी किताब 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में इसका उल्लेख किया है.
२०१७ नरेंद्र
मोदी जी ने राजचंद्र पे डाक टिकट ज़ारी
किया है
जीवन में श्री
रामचंद जैन द्वारा जैन धर्म के रिविज़न से
पहले इंग्लैण्ड में कई बुद्धिजीवियों ने उन्हें प्रभावित किया और वहां रह कर वी
ईसाईं धर्म को भी जान पाए कहा जाता है रोम के सैंट पीटर्स में जब उन्होंने ईसा
मसीह की मूर्ती देखी तो उनके आंसू निकल पड़े, महात्मा गाँधी मन में ईसा के जीवन तथा व्यक्तित्व के प्रति
अपार श्रद्धा थी इस प्रभाव के लिए कुछ सीमा तक गाँधी टालस्टाय के ऋणी हैं टालस्टाय
ने “
the kingdom of God is within you” में ईसाई शिक्षा को नए रूप में ढाला था, कष्ट झेलने की शक्ति और उसकी गरिमा के जो इमेज को अपने
लफ़्ज़ों से टालस्टाय ने रची गाँधी जी के सत्याग्रह विचार का यह प्रेरणा स्रोत बना
इसी तरह
अमेरिकन विचारक थोरू के प्रभाव को भी स्वीकारा थोरू का “ सामजिक अवज्ञा” के विचार में गाँधी को नयी संभावनायें लगी
इसके इलावा
गाँधी ने अपना परिचय इस्लाम तथा जोरास्ट्रींअन धर्मों से भी बढ़ाते हुए रसकीन तथा
उस समय के कुछ फेमस “थियोसोफिस्ट”
को भी पढ़ा
गाँधी विचारों
को बस विचारों तक सीमित नहीं रखते थे विचार को अभ्यास में लाते हैं और शुरू होता है गाँधी के प्रयोगों का
सिलसिला..
जो विचार
अभ्यास में नहीं लाया जा सकता गाँधी के लिए वो फ़िज़ूल है... अपने गीता की व्याख्या
अनासक्ति योग में गीता के वो श्लोक जो गाँधी को प्रयोग के लायक नहीं लगे उन्होंने
वो कम टेक्स्ट देते हैं या छोड़ भी देते हैं गाँधी लोगो के हिसाब से शब्द व भाषा
चयन करतें हैं उनको पता है इंग्लिश पढने सुन ने वाले लोग , या गुजरती या हिंदी भाषी की चेतना, समस्या, विचार, और समझ कई जगहों पे अलग अलग है इसी लिए एक ही विषय पे उनके
उदारहण,किसी परिभाषा की सरलता व जटिलता अलग अलग मिलेगी आप गुजरती, इंग्लिश और
हिंदी लेखों को पढ़ते हुए आसानी से ये अंतर देख सकते हैं
गाँधी के धर्म
सम्बन्धी व् नैतिक विचार पुख्ता और साफ़ तो हैं पर उन्होंने दर्शन शास्त्र की कसौटी
पे इसको कसने की कोशिश नहीं की या शायद ज़रूरी नहीं समझा
हमें गाँधी के
दर्शन को समझने के लिए परत दर परत समझना होगा
गाँधी अपनी
आस्था में सत्य और ईश्वर को एक कर देते हैं और ईश्वर को समझने जानने की चेष्ठा में
सत्य को समझने की यात्रा प्रारंभ करते हैं
ये कोई
शास्त्रीय रूप नहीं है पर हम गाँधी के धर्म को समझने के लिए उनके धर्म सम्बन्धी
मूल ढांचे को समझ के आगे बढ़ते हैं जो की वैष्णव धर्म है जो पूर्णया ईश्वर वादी है
कर्म और पुनर्जन्म पे ऐतबार करता है वैष्णव मत वेद और उपनिषदों को भी महत्त्व देता
है
वैष्णव मार्ग
मूलत: भक्ति मार्ग है गाँधी के राम और कबीर के राम में कभी कभी समानता भी देखने को
मिलती हैं अपने कई विचारों और लेखों में गाँधी निर्गुण ईश्वर की बात कहते मिलते
हैं
पर मानवीय
गुणों के साथ जोड़ने पे गाँधी के ईश्वर मानव स्वरूप हो जातें हैं गाँधी कई संतों के
जीवन और उनकी वाणी से भी प्रभावित रहे हैं
शंकर का अद्वैतवाद इसका दार्शनिक ढांचा खेंचता है
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या
आपकी नज़र गयी कि ब्रह्म यानि ईश्वर सत्य है, गाँधी के पास कई रास्तों से आया...पर
गाँधी “गॉड इज ट्रुथ” को “ट्रुथ इज गॉड” में तब्दील कर देते हैं जो मेरी समझ से इस वैष्णव भक्त के
पास ला शऊरी तौर पे शैव धर्म से आया, जहाँ सत्यम शिवम् की बेसिक लकीर है
सत्य ईश्वर है..
मूलत: धर्म
ईश्वर सत्य है कह ही रहे थे या अभ्यास कर रहे थे, गाँधी ने बस सत्य ईश्वर है यह
कहने पे जोर दिया या इसे मन्त्र का रूप दे दिया
आप माय
एक्सपीरिमेंट विथ ट्रुथ को माय एक्सपीरिमेंट विथ गॉड के चश्मे से देखने की कोशिशकर सकते हैं
गाँधी जिसे
दुनिया महत्मा मान रही मास लीडर के साथ आध्यात्मिक संत भी मानती है वो हमेशा कुछ
सीखने अपने अनुभवों में इजाफा करने का किस तरह हर संभव प्रयास करता है
१९३५ में
परमहंस योगानंद ( एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ योगी के लेखक एवं योग गुरु) जब वर्धा आते
हैं तो गाँधी योग अभ्यास के विषयों पर उनसे चर्चा करते हैं और क्रिया योग में
दीक्षा की इक्षा ज़ाहिर करते हैं
गाँधी की बातें
नीरस या बोझिल कही नहीं हैं धार्मिक, नैतिक शिक्षा आदि
सम्बन्धी गभीर विषयों पे बात करते करते गाँधी का हास्य बोध कहीं कम नहीं
होता जैसे पहली शाम अहिंसा आदि विषयों पे बात करने के बाद जब योगानंद जब जाने लगते
हैं गाँधी उन्हें एक तेल देते हुए कहते हैं ,”स्वामी जी आश्रम के मच्छर अहिंसा के विषय में नहीं जानतें”
गाँधी के आलोचक
गाँधी के “ईश्वर विचार” में बौद्धिकता की पूर्ण उपेक्षा की बात कहते हैं क्योकि
गाँधी इसपे कोई तार्किक बात न कहते ईश्वर की स्थापना के लिए अंतरात्मा की पुकार
अन्तर की आवाज़ को दोहराते हैं गाँधी किसी भी विचार को (यानि प्रश्न ) अपने भीतर
रखते और ईश्वर की आवाज़ को (यानि उत्तर) को भीतर सुन ने की कोशिश करते
“
I
subscribe to the belief or philosophy that all life in its essence is one …This
belief requires a living faith in a living God who is the ultimate arbiter of
our fate.
”
निश्चित तौर पे
आत्मा और परमात्मा के साथ आप कर्म के सिद्धांत और पुनर्जन्म पे ऐतबार करते हैं तो
भाग्य पे विचार करेंगे ही अब इसके आगे बढ़ते हुए क्या गाँधी जी भाग्य में परिवर्तन
के लिए मंतर जंतर ताबीज़ बूटी रतन पे ऐतबार करते थे
तो इसका जवाब
है नहीं गाँधी इन सबका खंडन करते रहे...गाँधी एक योगी के भांति अपने कर्मों द्वारा
भाग्य निर्माता पे जोर दिया शुद्ध विचार सत्य को ह्रदय में बसा के सब कार्य ईश्वर
को समर्पित कर के कर्म करने को ही आगे रखा अपनी गीता की व्यख्या में ज्ञान, भक्ति और कर्म में उन्हने अपनी व्याख्या में कर्म को
सर्वोपरि रखा
वैसे गुजरात
में और गुजरात से सटे महारास्ट्र में संतों का व्यापक असर था पर गुजराती और वैश्य
समाज यूँ भी कर्म प्रधान समाज है व्यापारी वर्ग ज्याद: है
शायद यह समझ आस
पास की सोसाइटी से गहरी बैठी हो गुजरात से निकलने के बाद ब्रिटेन भी व्यपार केंद्र
ही रहा गाँधी के इर्दगिर्द और इन्ही सोसाइटी को गाँधी ने आगे बढ़ते हुए और
व्यवस्तिथ होते हुए देखा
गाँधी की नज़र
में ईश्वर और ईश्वरी विधान २ चीजें नहीं हैं
गाँधी ईश्वर को
प्रेम का ही एक रूप मानते थे गाँधी के अनुसार हर किसी में ईश्वर है इसलिए हर किसी
में प्रेम की शक्ति है और उसे ही जागृत कर ईश्वर को महसूस किया जा सकता है
मुझे लगता है
यह परिभाषायें भारत के भक्ति काल में उठी खुशबु से ही उनके भीतर समां गयी क्योकि
उस से पहले भारतीय धर्म में प्रेम शब्द मिलता ही नहीं हैं संस्कृत में तो यह शब्द
ही नहीं है काम की बातें हैं प्रेम की नहीं ...
गाँधी अन्य
भारतीय दार्शिनकों की भांति मोक्ष को मानव जीवन का अंतिम ध्येय स्वीकार किया है पर
उनके अनुसार मोक्ष के लिए संन्यास लेने या जीवन छोड़ने की आवश्यकता नहीं है बल्कि ‘पीड़ित एवं अभावग्रस्त मनुष्यों की सेवा का निस्वार्थ एवं
सतत प्रयास हमें मोक्ष दिलाता है’
एक और बात
गाँधी की ईश्वर सम्बन्धी ख़ाका इतना बड़ा है और ठोस भी की उसपे सारे धर्म एक राय
रखते नज़र आते हैं
गाँधी के धर्म
में सिर्फ अपने उत्थान पे ध्यान नहीं है चूँकि सबके भीतर ईश्वर हैं सबके भीतर
शुभता है हर मनुष्य भीतर में अच्छा मनुष्य
है भले ही व्यवहार में क्रूर, स्वार्थी, कपटी आदि हो सकता है अगर उसकी शुभता को जगाया जाए वह अच्छा
मनुष्य हो जायेगा...यहाँ से ही सेवा व प्रेम भाव का उदय होता है और सामूहिक उत्थान
पे गाँधी अपना और सबका ध्यान केन्द्रित करते हैं.
“I
refuse to suspect human nature. It will, is bound to, respond to any noble and
friendly action.”
Young
India
4-8-20
“
In the application of the method of non-violence, one must believe in the
possibility of every person, however depraved, being reformed under human and
skilled treatment.”
Harijan
22-2-42
शुभ साधनों द्वारा शुभ लक्ष्य की प्राप्ति
साध्य और साधन
पे गाँधी की बात भी बहुत ज़रूरी है साध्य यानी लक्ष्य क्या है और साधन यानि उसे
कैसे पूरा किया जा रहा है
अपनी बातचीत
में लेखों में गाँधी साधन पे बहुत बात करते थे जैसे ईश्वर ने हमें शक्ति दी है वो
साध्य पे नहीं साधन पर लगायी जानी
चाहिए
साध्य को पाने
के लिए गाँधी जल्दी में नहीं हैं क्योकि उनका दृढ विश्वास है अगर सही साधन से
लक्ष्य नहीं पायगा लक्ष्य का विघटन हो जायेगा
जैसे लक्ष्य
भारत की स्वतंत्रता साधन अहिंसा, सत्याग्रह अब साधन को आत्मसात न कर पाने के कारण लक्ष्य मिल
के भी कितनी हानि हुई..गाँधी के इस विचार की पुष्टि चौरी चौरा काण्ड के बाद
आन्दोलन वापस लेने पे समझ आती है गाँधी कहाँ तक देख पा रहे थे...
“हिंसात्मक ढंग से प्राप्त ‘स्वराज’ भी हिंसात्मक स्वराज्य हो जायेगा, उस प्रकार का स्वराज विश्व और भारत दोनों के लिए हानिकारक
होगा”
-Ibid
17-7-21
गाँधी के भीतर
भारत ही नहीं विश्व की भी चिंता समायी थी वो अपने धर्म की परिभाषा में एक
विश्वव्यापी धर्म का ख़ाका खेंच रहे थे एक नए धर्म की ओर और नए समाज की स्थापना
हेतु
गाँधी के धर्म
को समझने के लिए गाँधी के पसंदीदा पन्द्रवीं शताब्दी के संत-कवि के नरसिह मेहता के
भजन को देख के हम आसानी से समझ सकतें हैं जो आज हर कोई जानता है गाँधी का पसंदीदा
भजन था ये क्यों था वो इसके अर्थ में छुपा है जिसमें सिर्फ अपने उत्थान नहीं
सम्पूर्ण विश्व के उत्थान को कवि दोहरा रहा है
Call those people Vaishnavas who
Feel the pain of others,
Help those who are in misery,
But never let self-conceit enter their mind.
Call those people Vaishnavas who
Feel the pain of others,
Help those who are in misery,
But never let self-conceit enter their mind.
They see all equally, renounce craving,
Respect other women as their own mother, Their tongue never
utters false words, Their hands never touch the wealth of others.
They have forsaken greed and deceit,
They stay afar from lust and anger,
Narsi says: I'd be grateful to meet such a soul,
Whose virtue liberates their entire lineage.
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वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड परायी जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे॥
सकळ लोकमां सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे।
वाच काछ मन निश्चळ राखे, धन धन जननी तेनी रे॥
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।
जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे॥
वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे।
भणे नरसैयॊ तेनुं दरसन करतां, कुळ एकोतेर
तार्या रे॥
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