लिपटी हर इक शय यहाँ काली कबा में है
ये जि़न्दगी तमाम उसी दस्ते दुआ में है
तो क्या हुआ की तू भी अगर मुझ से है खफा..
हर शख्स की खुशी यहाँ उसकी अना में है..
मट्टी में दफन हो के मैं बरगद घना बनूँ..
इक और इब्तिदा मेरी..इस इंतिहा में है...
कैसे सिमट के धूप..ये चादर में आ गयी..?
फिर इंतिहा को छू के सफऱ.. इब्तिदा में है..
मस्तो मैं किसलिए उसे अब ढूंढता फिरूँ
अंदर मेरे वही है..जो बाहर खला में है..
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