ग़ज़ल 8


रोने लगते सुब्ह अक्सर  बिन सुने हम गालियाँ
किस क़दर चुभने लगीं हैं घर की ये खामोशियाँ

याद मुझको आ रही है..भागती सी शाम वो
दोनो जब ठहरे हुए थे एक पल के दरमियाँ

और फिर इक उम्र तक अफ़सोस हम करते रहे
भूल आए थे कभी हम घर के भीतर चाभियाँ

खो के पाने की अलामत इससे बेहतर क्या मिले
शायरी उसको मिली जिसको मिली बेचैनियां

ये तबियत अब कहाँ अच्छी भली होने को है
काश आ कर पूछते वो..ठीक हो मस्तो मियाँ 


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