विज्ञान, कला और भाषा



पढाई के दौरान हर कोई उस बिंदु पे आता है जहाँ उसे चुनाव करना होता है कला या विज्ञान..सामान्य तौर पे कॉमर्स को भी कला के भीतर ही जोड़ देते हैं लेकिन मूल विभाजन यूँ ही होता है...कला या विज्ञान
हमारे भारतीय आम जन मानस की अवधारणा है कि विज्ञान के विषयों में ज्याद: दिमाग लगता है सो जिनके परीक्षा परसेंट अच्छे आये उन्हें विज्ञान और बाकि कला कॉमर्स अथवा खेल आदि क्षेत्र का चुनाव कर लें..
हाँ कुछ बड़े स्कूलों में काउंसलर होता है जो बात कर के चुनाव के लिए कहता है पर यह संख्या बहुत कम है इसको मानना ही बेईमानी होगी..

बहुत हद तक स्कूल हमें औसत ज़िन्दगी जीने के लिए तैयार करता है जो शायद बहुत गलत भी नहीं है जब इतना संघर्ष है तो क्यों न पहले जीने की मूलभूत आवश्यकताओं को जुटाया जाए..
पर इस चुनाव ने या कहूँ चुनाव की पद्धति ने विज्ञान और कला का बहुत बुरा किया..

विज्ञान और कला दोनों एक दूसरे के पूरक हैं..
कोई विज्ञान से जुड़ा व्यक्ति कला से कोसों दूर है तो वो नया शोध या नया आविष्कार नहीं कर सकता और कोई कलाकार अगर वैज्ञानिक सूझ भूझ नहीं रखता अपने क्षेत्र में कुछ नया नहीं बना पायेगा..
सो कोई कलाकार scientific temperament नहीं रखता कुछ नया नहीं कर पाया..इसी लिए सारे बड़े साहित्यकार, कलाकार नाटककार आपको विज्ञान, जो विशिष्ठ ज्ञान है उस वैज्ञानक दृष्टिकोण के सवाहक मिलेंगे..


प्रोग्रेसिव होना प्ररगतिशील होना असल में आगे की और देखना है भविष्य की ओर...ये एक दृष्टिकोण  वैज्ञानिक ढंग लगता है ?
प्रेमचन्द यहीं लखनऊ के पहले प्रोग्रेसिव राइटर एसोसियेशन की मीटिग के भाषण में कह रहे “जो प्रोग्रेसिव नहीं है वो साहित्य नहीं है.“ ये प्रगतिशील लेखक होना ये मान लिया गया मार्क्स आईडीयोलोजी है पर कुछ भी इस से मुक्त नहीं है...क्योकि कोई अभी तक पीछे नहीं जा पाया है, ये असल में समाज के समावेशी होने और वैज्ञानिक यानि मूलत: तार्किक होना ही है
चुकिं हम पीछे नहीं जा सकते तो आगे ही बढ़ेंगे और पीछे ऐसा कुछ है भी नहीं मात्र अनुभवों के सिवा सो विकास तो होता रहेगा और ये विकास होगा एक्सपेरिमेंट यानि प्रयोगों से..

एक किताब “कत्थक नृत्य” जिसके लेखक प्रकाश नारायण कहते हैं,  
“ विकास न तो अच्छा होता है न बुरा ..बदली हुई शारीरिक, मानसिक, प्राकृतिक और सामजिक परिस्थितियों के लिए वह अनिवार्य होता है.”  
इस विकास के कदमताल से सामंजस्य बिठाने हेतु नए की तलाश की जाती है और विज्ञान और कला जहाँ intersection का स्पेस क्रेअट करती हैं वहां ही कुछ नया जन्म लेता है

  

गांधी एक हाथ से बहुत कस के परम्पराओं का दामन पकड़ें हैं पर दूसरे हाथ में वैज्ञानिक तरीका है..
सेवा भाव है पर बगैर विज्ञान के सेवा कैसे हो पायी इतने करोड़ों लोगों की



 









कोई नया वाद्य यंत्र कैसे आएगा अगर सगीतकार विज्ञान की समझ न रखे..
इसी नए के लिए, intersection के स्पेस के लिए डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम वीणा बजाते मिलेंगे और आइन्स्टीन वाइलिन...
गांधी आइन्स्टीन को पढ़ते मिलेंगे और आइन्स्टीन गांधी को...







[२]

फूल के पास आप गए आपको वो लाल दिखा आपके पास इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है..फूल से जो बू आयी क्यों आयी उसकी भी और उस कैमिकल जो फूल छोड़ रहे हैं 
जो हवा के माध्यम से आप तक पहुँच रहा है इस वैज्ञानिक व्याख्या है आप इस परिभाषित कर लिख सकते हैं यह गद्य हुआ बिन्दुवार तार्किक और ठोस !
पर फूल को देख कर जो आपको महसूस हुआ जो आपके भीतर घट रहा है जो आपको याद आ रहा जिसमें ठोस कुछ भी कहना मुश्किल है आप शब्द पकड़ रहे हैं 
पर वो पूरी तरह जो आप बताना चाह रहे बता नहीं पा रहे वो काव्य है

चाहे फूल चाहे चाँद या मंगल चाहे आकाश को देख कर आप कह सकते हो वो गद्य या काव्य दोनों हो सकता है
पर दोनों अपने शुरूआती क्षणों में कल्पना का सहारा लेते हैं..कल्पना मूल में काव्य के अवयव ली हुई है..
सच में चाँद पे पहुचने से पहले हम कहानियों में पहले पहुँच चुके थे वहां चल चुके थे फिर इस कल्पना को 1968 में मूर्ती रूप दिया जाता है

कल्पना कला है नाट्य है एक उड़ान है एक फैंटेसी है विज्ञान उस कल्पना का साकार रूप देता है एक पुल बनाता है उस फैंटेसी, उस नाटक, उस कल्पना तक पहुचने का...जो ठोस है..तार्किक है..जहाँ हर कोई जा सकता है

आप सपने देखते हैं ?
सपने क्या है ? कल्पना..इमेजिनेशन...
किसी ने वायरलेस की कल्पना की सपना देखा या किसी ने फोन...या ए सी का...
हाँ एक बात ये भी है कल्पना का दूसरा कारण ज़रुरत भी है..जो हमें  ज़रूरी लगा हमने कल्पना किया और विज्ञान ने उस कल्पना तक पहुचने का पुल...लगातार प्रयोगों के द्वारा
ये तो तय हुआ हम सपने देखते हैं..लेकिन किस भाषा में ?

हिंदी ..अंग्रेजी...तमिल...असमिया...बंगाली आदि...जी हमारी जो मातृभाषा है या जिस भाषा के हम करीब हैं  उसमें ही तो ये भी तय हुआ की भाषा ही कल्पना का सपने का कारक है...ये संवाद जो कल्पना का  नाटक का सपने का मूल है ये अगर कमज़ोर हो तो निश्चित तौर पे संवाद के कमज़ोर होते ही कल्पना नाटक सपना कमज़ोर हो जायेगा..

बगैर कल्पना के वैज्ञानिक अनुसंधान कहाँ जाने वाला है ?
कल्पना ही विज्ञान की भूमि है उसे बचाने के लिए भाषा का सम्वर्धन आवश्यक है भाषा के विकास में सहायक है नाटक, कला और साहित्य..
भारतीय नाटक जो रस केन्द्रित रहें हैं, विभन्न भावनाओं को जगा कर सामाजिक और मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है..इसे खेलने वाले और दर्शक दोनों के भीतर परिवर्तन करता है और सम्प्रेषण के अभ्यास पे भी ध्यान दिलाता है..यह सम्प्रेषण का अभ्यास कम्युनिकेशन प्रैक्टिस ही भाषा को सहज, सरल, तरल  और सुन्दर बनाता है तब ही सामने वाले के विचार को लोग ग्रहण कर सकते हैं..    
विज्ञानं और कला विकास की गाडी के २ पहिये हैं जो घूमते कल्पना की इन्जन से है जिसमें भाषा का ईधन लगता है.

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