रिहर्सल रोज़ की ये !!


मैं हर रात वहशी
होने लगता..
ये वहशत
करे बेचैन
रखे बेचैन

मैं थक कर चूर हो जाने की ख़ातिर
भगाता खुद को रहता
सुबह से शाम...

मैं दम मारूँ..
कि सो पाऊं...

न जाने चाहा क्यूं मैंने
भरूँ मैं होश से पूरे...
मगर हासील
ये रिसता होश
                ये वहशीपन...
                   तड़प मेरी..
जगाये रात भर मुझको...

इसी उलझन से मैं
                   बचने की ख़ातिर
तिरे पहलू में आ कर
लेट जाता...
करूँ ख्वाहिश
मैं सो पाऊ
मैं देखूं ख़्वाब   !
जब थक हार जाता
मिरे जी में आता !
कि थामूँ हाथ तेरा
जगा कर तुझको बोलूँ
छुपा लो यार मुझको
बचा लो यार मुझको

मगर कुछ कर न पता
बदन हरकत न करता
मैं देखूं आँख फाड़े
तभी ये ध्यान आता
मैं सिद्धार्थ नहीं क्यों ..
कि सब कुछ छोड़ कर के
निकल जाऊं
बुद्ध होने
तब उसका ध्यान आता
जो राहुल सा है बिलकुल..

मैं पत्थर दिल नहीं हूँ
कि उसको छोड़ कर के
निकल पाऊँ मैं घर से
किया कैसे था उसने
जो निकला घर से वो था
ये सब कुछ देख के
नहीं देखा था उसने ?
बड़ा जिगरा था उसमें...
या पत्थर दिल था वो फिर ?

...चलो अच्छा हुआ ये
कि व्रत को तोड़ कर के 
खायी खीर उसने
फिर बैठा ध्यान में वो
मिला था ज्ञान उसको

वगरना हश्र क्या था ..?
बहुत अफ़सोस में वो
न जी सकता..
न मर सकता..
तड़प बढ़ती ही जाती
खलिश बढ़ती ही जाती
चुभन बढ़ती ही जाती...

मैं उसको दाद दूँ क्या ?

बड़ी हिम्मत थी उसमें
कि कितना कुछ धरा था..
जिसे वो छोड़ निकला
:
तिरी जानिब भी मस्तो
कहीं कुछ कम नहीं है
तू वहशी रात भर का
मगर पत्थर नहीं है
कि सब कुछ छोड़ कर तू
कहीं कुछ पा न सकता
जो मिलना ज्ञान तुझको
जो मिलना ध्यान तुझको
वो सब भीतर मिलेगा
कभी लगता है ऐसा
यूँ जस्टीफाई करना
मिरी राहत यही है

अरे ! लो सुबह आयी..
ये ले के नींद आयी
लगी ढलने ये वहशत

मैं फिर से सो चुका हूँ...

कहानी रात की है
रिहर्सल रोज़ की ये !!


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