जोगी


रात की काली नदी में मैंने
हाथ जो डाला
एक सितारा
पकड़ में आया
ज़ोर से उसको खींचा मैंने
:
चारो ओर इक अलख जगी थी ..
आँख से मैं कुछ देख न पाया
जिस्म के जलने सी कुछ बू थी
कपडे सारे ख़ाक हो गए
चेहरा मेरा राख हो गया
ठंडा ठंडा सा लगता था
सरगम सी कुछ कान में आयी
सा और रे के बीच में मैं था
और मैं तब से तैर रहा हूँ



Share:

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें