काम यात्रा : (एकल)
-मस्तो
{इस नाटक का प्रदर्शन अभी नहीं हुआ है}
प्रथम उल्लास
(नृत्य करते हुए स्त्री का प्रवेश )
नमस्कार ! सभी कलाओं में मुझे नृत्य बेहद पसंद है देखिये ना यहाँ कला और कलाकार २ नहीं रहते एक हो जाते हैं तभी वो अति सुन्दर होता है पेंटिंग में पेंटिंग अलग और उसको बनाने वाला अलग, सिंगिंग में कुछ महान गायक वहां पहुचते हैं जहाँ वो सरापा..आरोह अवरोह का रूप हो के ध्वनि हो जायें पर एक नर्तकी शुरू से आख़िर तक सर से पाँव तक शुद्ध कला होती है कला और कलाकार एक हो जाते हैं non-duality
कोई दूसरा नहीं अद्वैत बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है , ”An ocean is that one seer, without any duality [Advaita]; this is the Brahma-world, O King. Thus did Yajnavalkya teach him. This is his highest goal, this is his highest success, this is his highest world, this is his highest bliss. All other creatures live on a small portion of that bliss.”
मैं बात करने चलूंगी तो एक सिरा पकडूगी...मैं कपिल मुनि का आश्रय लेती हूँ.. और सांख्य दर्शन से बात प्रारम्भ करती हूँ
अद्वैत से
यानि कोई दूसरा नहीं है| वो जो एक है | वो स्वतंत्र है...मुक्त | पर खेल एक से कहाँ होगा | वो जो एक पदार्थ है | वो मैं हूँ मैं अनंत काल से सो रही थी| पर इस काल का आभास तो तब हुआ | जब मैं जागी | देखा क्या ! काल भी सो रहा है| बताओ ? ये भी कोई बात है...मैं जो पदार्थ हूँ ..डार्क मैटर काला पदार्थ| उठ बैठी.और समय सो रहा है | पहले तो मैंने अकेले कुछ खेलना चाहा पर बोर होने लगी...फिर खुद से कहा काली इस काल को उठाओ और मैं चढ़ बैठी उस ... वो कहता रहा,” मुझे सोने दो..मुझे सोने दो”| पर मने एक न सुनी | वो उठते ही बोला,” क्या है ?” | मैंने कहा मैं बोर हो रही | “तो ?” | अरे उठो..उठो...उठोSS मुझे खेलना है...और वो उठ खड़ा हुआ मेरे साथ खेलने
और यूँ ही अपनी धुरी पर घूमते...अक्सर हम बदल लेतें हैं किरदार| और हम दो हैं भी कहाँ | हम दोनों का स्वभाव है मुक्त रहना पर जैसे पकड़म-पकडाई में कोई एक भागता है स्वतंत्र रहना चाहता है और दूसरा पकड़ना
मैं प्रकृति हुई अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु समेटे और वो पुरुष यानी जीवात्मा ! रूह !
रूह का स्वभाव है स्वतंत्रता | विकास !
और मैं शरीर और ये दुनिया बन के उसको बांधती हूँ..इस शरीर के पांचो तत्व को एक अवधि खत्म करने के बाद अपने में मिला लेती हूँ मृत्यु पे पहले वायु, फिर अग्नि और फिर आकश और जल के जाने पे पृथ्वी में पृथ्वी का शरीर मिल जाता है.
मैं क्यों पकड़ती बांधती हूँ ? अरे खेल के लिए | पकड़म- पकडाई में कोई चोर बनेगा तभी न कोई भागेगा और खेल होगा..(बुद्धू हो बिल्कुल) | आखिर में पाना तो स्वतंत्रता है...पर मैं न फिर भी बोर हुई....तो पुरुष को पुन: पुरुष और स्त्री में तोड़ मैं भी खेल में दो तरफ़ा शामिल हो गयी...
अच्छा पता है मैं न बस इस दुनिया में खेलती.. दूसरी दुनिया में तो बस पुरुष का भुगतान है...आपने सभी धर्मों के जन्नत दोज़ख स्वर्ग नर्क हेवेन हेल के description पढ़ें हैं सब पुरुष पॉइंट ऑफ़ व्यू से उनके लिए..मैं न जाती जन्नत दोज़ख...अपना तो अलग ही हिसाब क्योकि मैं ही तो खेल बनाया शुरू किया.
सांख्य का अर्थ जानते हैं आप ? नंबर्स और खेल है इन्ही तयशुदा नंबर्स की कोडिंग का...जटिल है आप समझ नहीं पाओगे....इस खेल के लोगों को लगता है 4 पड़ाव है धर्म अर्थ काम मोक्ष पर चौथा तो फाइनल डेस्टिनेशन है वो तो अपने आप मिलेगा वो तो मुक्ति है स्व भाव ! आप धर्म पकड़ रहे...अर्थ साध रहे....काम समझने से पहले ही मोक्ष की तरफ भागे गयी भैंस पानी में..इन लोगों के लिए मोक्ष की असल मीनिंग मिलेगी यूँ भी संस्कृत शब्दकोष में मोक्ष की मीनिंग डाउन फॉल है
वीडियो game खेले वाले मेरी बात समझेगे..पिछला स्टेज क्लियर नहीं हुआ तो अगला स्टेज कैसे मिलेगा...
काम यानि आपकी क्या इच्छाएं हैं डिजायर है उनको परत दर परत उघाड़ना और डिजायर के पार जा के ये स्टेप पार होगा...अंकुश लगा के...नियंत्रित करने का जो प्रयास किये वो असफल रहे इन्द्रियाँ जो इच्छाओं को ...काम को पूरित करती.. उनपे, मस्तिष्क डिक्टेटर शिप नहीं चला सकता वहां वहां democracy ही चलेगी .. मन जो इन्द्रियों का राजा है जब तक उनका दोस्त नहीं हो जाता तब तक कोई पार कहाँ ?
ये राज़ है बस कुछ विरले योगी ही इसको जानते हैं लोगों को लगता है योगी का मन इन्द्रियों को जीत चुका है पर असल में वो उनसे दोस्ती कर चुका होता है और सब इन्द्रियों से खूब स्वाद लेता है और मुक्त बना रहा है इसलिए ही तो कहा गया है “योगी परम भोगी”
ये जो हमारी डिज़ायर है इच्छाएं इनके सेंटर में sex ही है हाँ आपका काम..ओह ये सिगमंड फ्रायड भी कह रहा था पढ़ा था आपने ?
हमारी इच्छाएं `
क्षीर सागर सी हैं
जिसमें
हम डुबकी लगा रहे
पर कहाँ तक पहुचे
क्या क्या देखा
जान नहीं पाते
ये श्वेत वर्ण
जो सब कुछ लौटा देता है
अकेले पार नहीं होता
दम घुंट जाएगा
इसलिए
तुम और मैं हूँ
यानि हम
Democracy से डर तो लगता है ? किसको ?? अरे वो जो शासक वर्ग है.. क्यों ? कोई भी टॉप पे पहुँच जाएगा..फिर राजा तो राजा बना रहेना चाहता है अपनी स्वतंत्रता के लिए...
देवता भी स्वतंत्रता चाहते हैं इसीलिए शासक व्यवस्था का हिस्सा बने रहना चाहते हैं...सत्य, त्याग और बराबरी जब कोई राजा अपना लेगा तो वो राजा का जनता का हिस्सा हो जायेगा कथा है दैत्य राजा बलि जब स्वर्ग पहुचे तो उनकी सत्य निष्ठा, तप, प्रेम, त्याग और बराबरी के बर्ताव के कारण जो तेज़ उत्पन्न हुआ सभी देवता स्वर्ग से भाग गए
अब आप बताओ सद्गुण देख भाग गए ? देवता और दैत्य किसका दामन पकड़ें फिर हम और उस शैतान का शुक्रिया अदा करें जिसके कारण हमारी अक्ल ठिकाने लगी ?
खैर ! दूसरी कहानी सुनती हूँ जब तारकासुर ने सब कुछ जीत लिया और देवता उसके यहाँ जी हजूरी करने के लिए विवश हो गए तो उन्होंने उपाय पता किया ब्रह्मा जी ने देवताओं को बताया महाकाल के पुत्र द्वारा उसकी मृत्यु संभव है
महाकाली हिमालय के यहाँ जन्म ले चुकीं थी..पर शिव तो तपस्या में लींन...देवताओं ने काम देव को काम पे लगाया...और उपाय तो न हुआ, शिव की क्रोधाग्नि से काम देव जल के स्वाह : हो गए
पर पार्वती जी ने तो मन बना लिया था इन्ही शिव से विवाह करना है शिव राज़ी नहीं हो रहे ये वो दौर था कि लड़कियां भी प्रणय निवेदन यानि प्रपोज़ करने का सोच सकती थी खैर पार्वती को शिव को राज़ी करना था और बताना है बॉस कौन है
शिव समाधि टूटने के बाद बैठे थे सप्तऋषि आते हैं पार्वती की तपस्या के बारे में बताते हैं जिसमें वो अपने शरीर को तपा रही थी...ताकि शिव विवाह के लिए हाँ कह दें..नटराज ने जब पार्वती को देखा तो मोहित हुए बिना कैसे रह सकते थे...पर उन्होंने छत्र- दण्ड से युक्त एक जटाधारी वृद्ध ब्रह्मण का वेश बनाया और गिरजा जी के वन में प्रवेश किया..और प्रीति पूर्वार्क उत्सुकता से देवि के समीप पहुंचे
वहां देवि अपनी सखियों से घिरी बैठी थी वेदी के ऊपर
वृद्ध ब्रह्मण को देखके उनको प्रणाम किया अतिथि की पूजा और भोजन इत्यादि का प्रबंध किया और उनसे पूछा,’ आप के तेज़ से पूरा वन प्रदेश आलोकित हो रहा हर तरफ शान्ति है
आप ब्रह्मचारी रूप धारण किये हुए कौन है ? कहाँ से आयें हैं ? “
मुनि
के रूप में नटराज बोले “ मैं अपनी इच्छा से हर जगह भ्रमण करने वाला और सबको सुख पहुचाने और उपकार
करने वाला हूँ..”
बातों बातों में गिरिजा ने जब बाते वो शिव को पति रूप में पाना चाहती हैं तो उस
ब्रह्मण ने दुःख प्रकट करते हुए कहा, “ तुम इतनी सुकोमल,
पवित्र.. हिमालय राज की पुत्री मैं उस रूद्र को जनता हूँ बैल की सवारी करता है
विकृत मन वाला वैरागी सदा अकेले रहने वाला है ..कहाँ चक्कर में पड़ी हो मुझे तो नहीं सही लग रहा तुम दोनों के
स्वभाव में कितना विरोध है...” इसके बाद वृद्ध ब्रह्मण ने और
बुराई की
उधर देवि का क्रोध बढ़ रहा था और फिर वो ब्रह्मण को गरियाना शुरू करतीं हैं,” मैं तो आपको महात्मा समझ रही थी लेकिन आप छी: ! अगर आप अतिथि न होते तो मेरे द्वारा आपका वध हो गया होता. और आप तुरंत यहाँ से निकल जाइए ...” और इधर पार्वती मुड़ती है शिव उनका वस्त्र पकड़ लेते हैं अपने असली रूप में आ जाते हैं
शिव पुराण में जो श्लोक हैं उसका शब्दश: अनुवाद होगा “ हे प्रेमनिर्भरे ! तुमने मुझे अपना दास बना लिया है तुम्हारे सौंदर्य को देखे बिना मेरा एक-एक क्षण युग के सामान बीत रहा है...लज्जा त्यागो क्योकि तुम्ही मेरी सनातन पत्नी हो..”
ये लज्जा त्यागना ही प्रणय निवेदन है या कहूँ प्रेम निवेदन लव मेकिंग खैर ! देवि ने कुछ और सोचा हुआ था उन्होंने कहा कि सुनो “इतना ड्रामा करते हो तो नट का रूप धर के आओ और भिक्षा में मेरे माँ पिता से मुझे मांगो अगर वो अपनी कन्या दान दे दें तो ठीक “
अब शिव करते क्या, “नट का भेष बनाया लाल चोगा बाएं हाथ में श्रृंग, श्रृंग समझते हैं सींग से बना एक वाद्य यंत्र होता है तो बाये हाथ में श्रृंग दायें हाथ में डमरू पीठ पर कंथा ..पाँव से आती छम छम की आवाज़ लिए पहुचें हिमालय और मेनका के पास उनके नगर
सब नगर वासी बच्चे स्त्री वृद्ध निकल के कौतूहल से खेल देखने लगे जोगी का
जोगी का संगत खेल
खेल..
तमाशा..
यार..
खिलौने..
:
मैं भी
चुप
और
तू भी
चुप है...
:
परिचय देता
गुरु आत्मा
चेला मनवा
खेल खिलाये
खेल भी देखे
मौन रहे
और बोल भी बोले
:
बोल रे जोगी
मन के भीतर
जो भी उमड़े
तू तो जाने
मन ही मंतर
:
इस भूमि में
पंच दरवाज़े
पांच खिड़कियाँ
जिनमें घूमें पांच परिंदे
:
पकड़ सके तो
पकड़ परिंदे
पकड़ न आये ?
कर के दोस्ती
पाँचों पंछी
जोगी के कन्धे बैठे
तू नाप सके तो
नाप ले हर क्षण
जोग हमेशा
कम ही पाए..
खेल निराला जोगी खेले..
काल हुए वो
काल ही पूजे
हारे हर दम
दम दम पाए !
उत्तम नृत्य और गान देख के मेनका दें स्वर्ण मुद्राएँ देनी चाहि तो नट ने लेने से इनकार किया और दान की भिक्षा में पार्वती को माँगा...मेनका नाराज होती है बुरा भला कहती हैं, पार्वती पास से सब देख हँस रही हैं... नट को और हिमालय नट को नगर से बाहर भेजने का हुक्म ज़ारी करते हैं
पर कोई बहार नहीं निकाल पाता
कभी नट रुपी शिव को कोई विष्णु रूपधारी कभी ब्रह्मा कभी सूर्य रूप धारी रूप में खेल खेलते दीखते हैं हिमालय को पर जब पिता को पार्वती का नट के साथ मनोहर हास करते देखते हैं समझने में देर नहीं लगती और फिर दान दिया जाता है है और पार्वती -शिव जी का ब्याह होता है
वैसे वो दौर और आज का पिता तुरंत जान लेते हैं बेटी किसी से बात कर रही है तो उसमें इंट्रेस्टेड है कि नहीं..
खैर ! इसके बाद भी ब्याह से पहले शिव रूप बदल के डेटिंग के लिए पारवती से मिलने आते रहे हैं...उसकी कथा फिर कभी !
कथा भटक गयी तारकासुर के मृत्यु की कथा शुरू हुई थी
विवाह उपरान्त महाकाल महाकाली के साथ देवदारु के वन में जाते हैं, नंदी अपनी पीठ पे बैठा कर उनको ले जाते हैं वन के एक गुफा में दोनों दाख़िल होते हैं जिसे भीतर बहुत मनोरम तरीके से सजा कर रखा गया है
नंदी बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे होते हैं...महाकाल उन्हें एक ग्रन्थ लिखने को कहते हैं
देवता तो बेहद खुश हैं कि अब शिव पुत्र पैदा होगा और तारकासुर का अंत होगा और फिर देवताओं को पुन: राज्य मिल जाएगा और इंतज़ार करने लगते हैं...वर्ष पे वर्ष बीत ते चले गए देवता इंतज़ार कर रहे और नंदी इस इंतज़ार की वेला में हर वर्ष अपने ग्रन्थ में एक अध्याय लिखते चले जाते
यूँ ही महाकाली ने महाकाल का वरण नहीं किया जो रति क्रीडा में इतने निपुण हैं कि कल्पना से परेय है
रावण शिव तांडव स्त्रोत में कहते हैं
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥
जो पावती के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।
हो सकता है आपको अटपटा लगे स्तन के अग्रभाग क्या पर संस्कृत में निपल्स शब्द का के
लिए कोई शब्द नहीं है और स्तन यूँ भी जनन अंग नहीं है सेक्सुअल ओरगन नहीं है ये तो
आपने बना दिया है अपनी फैंटेसी में .
शिव पार्वती विवाह से पहले रामायण काल में तो स्त्री और पुरुष सिर्फ कमर से नीचे का हिस्सा ही ढकते थे ऊपरी हिस्सा खुला होता हाउ चन्दन आदि से लेप किया हुआ
खैर ! महादेव और महादेवि भीतर हैं और एक दो दस सौ दो सौ तीन सौ पांच सौ आठ सौ और हज़ार साल हो गए शिव पार्वती बहार नहीं आये
नंदी एक हज़ार अध्याय का एक ग्रन्थ लिख चुके थे उन्होंने सोचा ग्रन्थ अपनी पत्नी सुयशा को दिखा लें...और उनके उस जगह से हटते ही देवताओं की हिम्मत हुई कि पता करें और अग्नि कबूतर बन के गुफा में जाते हैं, पार्वती को पर पुरुष का आभास होता है वो कमल के चादर से खुद को ढकती हैं इस सब सिलसिले में सिव का वीर्य बहार आता है जो अग्नि धारण करते हैं और वो गंगा में जाते हैं फिर कैसे बांसों के झुरमुट जो पार्वती की तपो भूमि रहा है कार्तिकेय का जन्म होता है और कैसे कृतिकायें उनको पालती हैं और उनको देवताओं का सेनापति बनाया जाता है और वो स्कंद कुमार कैसे तारकासुर का अंत करते हैं कम या ज्याद: आपको पता ही होगा
मैं आपका ध्यान उस एक हज़ार अध्याय वाले ग्रन्थ पे लान चाह रह थी जो नंदी ने लिखा था वो ही काम शास्त्र कहलाया...इस ग्रन्थ का कोई हिस्सा प्राप्त नहीं है
पर इसका आधार बना के अन्य ग्रन्थ लिखे गए उन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है
महा रात्री
दो बच्चों ने
एक दूसरे को
खिलौना समझ कर
हैरत से छू छू के देखा
मगर बच्चे थकते कहाँ हैं खेल से
बरसों बाद
चादर गिरी बिस्तर से
एक कबूतर
समय बन
अगर जीवन का मूल उत्थान है प्रेम या शान्ति तो विवाह और सामाजिक बंधन की क्या आवश्यकता ?
शुरू में स्त्री या पुरुष अपने विवेक से अपने पार्टनर का चयन करते थे या अगर स्त्री बहुत गुणों वाली है ध्यान दीजिये पुरुष के हिसाब से नहीं उस गुणवान स्त्री के लायक पुरुष को खोजा जाता था और स्त्री फिर चयन करती उसके प्रदर्शन के लिहाज़ से..
जैसे पार्वती ने शिव को पसंद किया और उनको शादी के लिए राज़ी किया सीता और राम स्वयंवर से पहले एक दूसरे को पसंद कर चुके थे पर इस चयन में मूल स्त्री की इच्छा होती थी कि वो क्या चाह रखती है विवाह बाद कोई और पुरुष रुचिकर लगा तो उस पुरुष के साथ जा सकती थी...
<परिवर्तन>
मेरा विवाह उद्दालक ऋषि के साथ हुआ उनका गुरुकुल बहुत चर्चा में था, याज्ञवल्क जो उनके गुरुकुल में आ गए थे उनके साथ उनकी कई चर्चा सुनी तो कच्ची उम्र के उस स्वाभाविक पड़ाव में आकर्षण होना प्राकृतिक था और जब से उनके गुरु धौम्य के प्रति, अपने बाल्य काल में गुरुभक्ति दिखाई थी जिसकी गूँज तो अभी इस सप्त सिन्धु प्रदेश में सुनाई देती है..
एक खिंचाव तो था ही..
फिर वेदों से आगे जाते हुए उनकी बातें जो छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषद में साफ़ साफ़ दिखती हैं विचारों का खुलापन मुझे उन सब बातों से प्रेम सा होने लगा हाँ वो बौद्धिक आकर्षण होगा..
और मैं आ गयी उनके आश्रम धीरे धीरे मैं उनके आश्रम के कार्यों में व्यस्त हो गयी और उन बौद्धिक बातें से बहुत पीछे छूट गयी.. तत्वमसि.. तत तवं असि... वह तू ही है.. बोध रहा नहीं जीवन के रस में ही रम गयी..
उद्दालक तो उनके गुरु का दिया नाम था मैं तो आरुणि ही संबोधित करती हमारा एक पुत्र हुआ हमने नाम दिया श्वेतकेतु...श्वेत केतु ने तो सुबह से शाम तक मुझे अपने सिवा कुछ और सोचने के मौका ही नहीं देता...उसका हँसाना रोना..चलना गिरना..खाना पीना आदि मुझे व्यस्त रखता..वैसा ही जैसे हर माँ के जीवन में आता है.. वो जैसे ही थोड़ा बड़ा हुआ तो आरुणि ने अपने आश्रम में न पढ़ा कर दूसरे गुरुकुल भेज दिया और मुझे लगा मैं इकदम से पूरी खाली हो गई..
जैसे बारिश होने के बाद चमकदार धूप...
मैं खाली पन और भीतर एक नया ताजापन महसूस कर रही थी कि आश्रम में एक ऋषि आये जो आरुणि के मित्र थे उनके प्रति एक सहज प्रीति मैंने महसूस किया और उन ऋषि से भीतर उठ रहे आँधियों का ज़िक्र किया तो उन्होंने भी अपने भीतर ऐसी ही बयार के संकेत दिए
हमने आरुणि से यह कहा तो उन्हों ने भविष्य की यात्रा को ले के शुभ कामान्यें दी और यह कहा,” हमारा साथ यही तक था और हमने सुन्दर गृहस्थ जिया अब तुम अपनी मन के पंक्षी को उड़ने दो क्यों पिंजरे में बंधोगी और क्या बांध पाओगी वो तुम ही हो तत्वमसि तुम ही शुद्ध आत्मा ...परम आत्मा हो, स्वभाव है तुम्हारा स्वतंत्रता...”
स्वभाव
मेरे भाव
और कुछ नहीं
इस शरीर की
होने वाली प्रति क्रिया है
और इस क्रिया का करक है
मेरा प्रेमी
जिसे देख कर सुन कर
स्पर्श द्वारा
सूंघ कर
या जिह्वा द्वारा
मैं जीती हूँ
और संजोती हूँ
इस मस्तिष्क में...
:
इन भावों का
अनुगामी होना
मेरे अनु भव हैं
मेरा स्व भाव
प्रकृति
आपको मैं अमर्यादित लगूं पर ये मर्यादा और सीमायें तो आपके दिमाग में संस्कारों, स्मृतियों में प्लानड वे में आपके भीतर रखी गयी हैं आपके डीएनए का हिस्सा बना के आप नयी स्मृतियाँ ही नहीं बना रहे आप उन तमाम स्मृति और संस्कार मर्यादा का बोझ अपने डीएनए में रखे हुए हो जो आपको स्वतंत्र नहीं रहने देता जो मूल में आप हो स्वतंत्र बगैर किसी के साथ के...
जैसे
हवा में नृत्य करता कोई कागज़ का टुकड़ा
(ध्वनि और नृत्य )
उल्लास 2.2
(घंटे की आवाज़ )
मनुष्य की आत्मा तो पूर्ण व्यस्क है अपने बाल्य काल में ही… मस्तिष्क के व्यस्क होने में समय लगता है...कोई शर्त नहीं 18 या 25 वर्ष…कोई कोई 52 या 81 साल में भी व्यस्क नहीं होता आप क्या करेंगे...
आत्मा
नहीं पता
मैं कहाँ से आयी
नहीं जानती जाना किधर है
जैसे
सुबह नहाने आई
युवती के जूड़े से
नदी में गिरा
गुड़हल का लाल फूल
कहीं जाता तो है
लेकिन कितना है,उसका नियंत्रण
इस बहाव में
किसी ने कहा वो डूब गया
किसी ने कहा उसने उसे दूर ता जाते देखा
फिर ओझल हो गया आँखों से
कोई कहता
वो रोज़ सुबह देखता है
उसी गुड़हल के फूल को
जो कभी गिरा था
दूर तक नदी में तैरते जाते
उल्लास 2.3
मै अपनी यात्रा में बढ़ गयी आगे मेरे पुत्र श्वेतकेतु जो अपने गुरु के आश्रम में था, जान कर आहत हुआ होगा और उस गुस्से ने उसे झोंक दिया शास्त्रों की अग्नि में जो था इस धरा पे दर्ज थी, पढ़ डाला रट डाला उसने और आ गया अपने पिता के घर... वो अपने पिता अरुणी की तरह तत्व से न समझता था न प्रकृति को स्वभाव से जान पाया और सब कुछ जान ने का ज्ञान एक अहम् की आग बढ़ा ही देता है मेरे भाई अष्टावक्र जिसे मेरा व्यवहार नहीं पसंद था उसने उसके भीतर की अग्नि को और हवा दी..
आरुणि के गुरुकुल में अन्य ऋषि को नीचा दिखाने की चेष्ठा से वो करने लगा व्यवहार
अरुणी शायद इसका इंतज़ार कर रहे थे उन्होंने उसे अपनी गठरी बाँध का अपने गुरु के यहाँ जाने को कहा कि “यह अकड़ कहीं नहीं ले जायेगी, भ्रम में हो कि सब जानते हो शास्त्र जिह्वा पे सैनिक मुद्रा में हों तो ज्ञान का भ्रम रहता है, पुत्र तूने उस एक को जान लिया क्या ? जो तुझमें भी है ?” श्वेतकेतु ने तुरंत कहा “आप किस की बात कर रहे हैं..?”
“वही जिस एक को जान के सब जान लिया जाता है.”
पिता ने कहा जा गुरु के पास जा वो जब भेजेंगे तब आना
श्वेतकेतु गया गुरु के पास और पूछा गुरूवर उस एक को जानने के लिए आया हूं। तब गुरु हंसा। और कहाँ चार सौ गायें बंधी है गो शाला में उन्हें जंगल में ले जा। जब तक वह हजार न हो जाये तब तक न लोटना। श्वेत केतु सौ गायों को ले जंगल में चला गया। गायें चरती रहती, उनको देखता रहता। अब हजार होने में तो समय लगेगा। बैठा रहता पेड़ो के नीचे, झील के किनारे, गाय चरती रहती। शाम जब गायें विश्राम करती तब वह भी विश्राम करता। दिन आये, रातें आई, ,चाँद उगा, चाँद ढला, सूरज निकला, सूरज गया। समय की धीरे-धीरे बोध ही नहीं रहा। क्योंकि समय का बोध आदमी के साथ है। कोई चिंता नहीं, न सुबह की न शाम की। अब गायें ही तो साथी है। और न वहाँ ज्ञान जो सालों पढ़ा था उसकी ही जुगाली कर ले। किसके साथ करे। ख़ाली होता चला गया श्वेतकेतु, गायों की मनोरम स्फटिक आंखे, आसमान की तरह पारदर्शी। आप देखना कभी गायों की आंखों में झांक कर, किसी और ही लोक में पहुंच जाओगे। कैसे निर्दोष और मासूम, कोरी, शुन्य वत होती है गायें की आंखे। उनका का ही संग साथ, कभी बैठ बैठे गाने लगता और जंगल की वादियों में सुर गूंजने लगते, बहार के सुर लगते लगते भीतर के भी सुन लगने लगे..., सालों गुजर गये। और अचानक गुरु का आगमन हो गया।
श्वेत केतु ने उनको प्रणाम किया और कहा गुरुदेव 1000 गायें होने वाली हैं बस 1 कम है..
गुरु ने कहा यहाँ एक हजार गाय हो गयी हैं । अब तू भी गऊ के समान निर्दोष हो गया है। पिता के पास चला जा ।
श्वेत केतु पिता के आश्रम पहुँचता है, अरुणी प्रसन्न होते हैं उस से बहुत बात करते हैं अपना सब ज्ञान देते हैं और एक रात आश्रम से गायब हो जाते हैं गुरुकुल का भार श्वेतकेतु के कंधे पर आ जाता है और एक एक उसको एहसास होता है वो जो पढ़ायेगा वो ही आगे आने वाले कल की दिशा तय करेगा अपने मामा अष्टावक्र का स्नेह पात्र वो था ही और वो गुरुकुल में सामाजिक संस्कारों के नए नियम बनाता है, और वो उसे पढाने लगता है, अरुणी के गुरुकुल, श्वेतकेतु, अष्टावक्र और अन्य विद्वानों के प्रभाव के कारण हर गुरुकुल में वही सलेबस पढाया जाने लगता है दिल शीशा तो हो गया पर मेरे कारण पड़ा हुआ एक रेशा उस दिल में था जो उसकी अभिव्यक्ति में आता गया..
हम अभी विवाह के जो नियम देखते हैं उसी के दिए हुए हैं जिसमें स्त्री या पुरुष विवाह बाद डिसकनेक्ट होने के बाद भी एक दूसरे के साथ रहने के लिए विवश हैं वर्ना अगर अलग होते हैं तो पाप के भागेदारी हैं और सज़ा का भुगतान करेंगे..
उसने सभी शास्त्रों को फिर से लिखा या कहूँ एडिट किया और अपनी मासूम समझ से उसे मर्यादित किया यज्ञ कैसे हों...पूजा कैसे हो...विवाह कैसे हों से ले कर नंदी के काम शास्त्र के 1000 अध्याय को उन्होंने 500 कर दिया...
व्यवहार में पहले भी थोड़ा चलन में था पर इसके बाद लोग अपनी माँ के नाम से नहीं अपने पिता के नाम से ही जाने गए...
आत्मा का स्वभाव और व्यवहार शून्य कर आत्मा शिष्य और मष्तिष्क गुरु बन बैठा, व्यक्तिगत या समुदाय हित को लोक हित की संज्ञा दी गयी...
श्वेत केतु ने तो शायद लोकहित में ही विचार किया होगा पर उसने एडिट करने का एक ख़ास औजार दे दिया जिसका आगे चल के बहुत बुरा इस्तेमाल हुआ...
नंदी की 1000 अध्याय क्या श्वेतकेतु के 500 अध्याय भी ज्याद:तर गुरुकुल से गायब होते चले गए बस यज्ञ कैसे करें पे जोर था और उपनिषद काल का दर्शन जो शून्य की बात करता था शून्य में ही धकेल दिया गया...
हजारों सालों तक यह दर्शन और हमारी स्तिथि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ हमें हमारी इच्छाओं के साथ धकेल दिया गया पीछे बहुत पीछे
बुद्ध ने किया हमारी स्तिथि में सुधार यह कहना मुश्किल है क्योकि जब इच्छाओं को ही छोड़ने की रट लगाया हो कोई कैसे थाम सकता सम्भाल या सवार सकता है मुझे कोई...
मैं इच्छा ही तो हूँ
पुरुष के मन की
जिसे नाम से कह सकते हैं आप काम
और काम जीता नहीं जा सकता
चाहे कितनी कर ले कोई तपस्या
अंग विकृत हो जाएँ
प्रतिक्रिया देना बंद कर दें
तो साध के नहीं हो पाई साधना
साधना तो दोस्ती है
काम से
इच्छा से
यानी मुझसे
जब डोर दायीं तरफ खींची जाए तो वो एक वक़्त बाद बायीं तरफ जाती है यही समय चक्र है सो बुद्ध के जन्म के 500 साल बाद फिर से बदलने लगी सुख के माइने, लोग देने लगे ध्यान ख़ुद यानि आत्म पर... आत्मा पर और सहज होता चला गया ध्यान मेरा
और गुप्त काल के आते आते पुरानी पाण्डुलिपि तलाशी गयी बहुत कुछ से कुछ कुछ मिला और लिख दिया वात्सायन ने जो कुछ वो समेट सकता था या जो कुछ वो समझ सका
असल में पुरुष शास्त्र पढ़ते रहे
अपने हित के लिए
पर कोई शास्त्र जिसके भीतर ये छुपा हो
कि कैसे दूसरों के हित का ध्यान रखें
खुश रखें ख़याल रखें
अबूझी पहेली लगती है
या लगती गैर ज़रूरी
हाँ जब कोई समझता कि
इस परहित में उनका
हित निहित है
हो जाता आसान
अनुसरण
कामशास्त्र
का मूल पुरुष हित नहीं
स्त्री हित है
स्त्री शक्ति स्वरुप है
उसको प्रसन्न रखने की चेष्टा
में लिखा है
ये शास्त्र
पुरुष बस एक
औज़ार भर है
उद्द्येश्य स्त्री सुख है
पर सुख कोई
मैदान नहीं है जहाँ बना सकता है
कोई घर
सुख पहाड़ की चोटी है
जहाँ पहुचते ही उतरते हैं आप
नीचे...
सुख की स्मृतियों को सर पर रखे
या बगल में दबायें
चढ़ना थकता है
पर उतरना देता है कष्ट
:
फिर शुरू होती है नयी यात्रा
नए सुख की
नए चोटी की
और नापते रहते हैं स्मृतियों में
हर चोटी की ऊंचाई
या थक कर दुखी हो
ले कर संन्यास
उतर आते हैं
मैदानों में
गाने लगते हैं कर्म कर सुख की इच्छा न कर
या देने लगते हैं उपदेश
दुःख का कारण है इच्छा
मूर्ख !
सुख का कारण भी हूँ
मैं
इच्छा
समाधि भी इच्छा है
और उसमें भी काम उर्जा होती है
स्थानांतरित
भाग कर कोई
कही नहीं गया
मुझसे ही पैदा हुए
हर रास्ता
मुझसे
यानि काम से
इच्छा से
हो के जाता है
पार तो नदी में उतर के जाओगे
तो आओ समझो न नदी के वेग को
नदी की ध्वनि को
नदी के स्वाद को
नदी के रंग को रूप को
स्पर्श को
पुरुष की कामाग्नि
बढ़ाने हेतु होती हैं औषधियां
और स्त्री
और स्त्री को चाहिए
बस एक पुरुष
उल्लास 3
(सूत्र धार मंच के मध्य में आती है माइक उठाती है लाइट ओंन करने को कहती है और दर्शकों से सवाल करती है ?)
प्रश्न : इतनी यात्रा हो गयी आप को क्या
लगता है काम को इतना दबाया क्यों गया ? कोशिश कीजियेगा बगैर अतरिक्त शब्दों संबोधन
के मेरे प्रश्न के ही उत्तर दें संक्षेप में...
प्रश्न था काम को इतना दबाया क्यों गया?
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प्रश्न : शायद उस समय स्त्री प्रधान समाज था या स्त्री बराबर की समझी गयी थी उस वक़्त..अब स्त्री को पीछे धकेलना था इसलिए ?
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प्रश्न : कहीं युद्ध या जीवन संघर्ष इतना बढ़ गया था इस लिए धर्म अर्थ काम मोक्ष में से काम को पीछे धकेला गया ?
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प्रश्न : पुरुष के काम इच्छा पूर्ती के तो
उपाय थे समाज के बाज़ार में...
स्त्री के साथ काम शास्त्र पीछे क्यों खिसकाया
गया होगा ? क्या लगता है आपको ??
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प्रश्न : ग्रीक व अन्य देवता जो बल /
शक्ति को दर्शाते हैं उनकी मूर्तियाँ देखी होंगी आपने नग्न ? उनके लिंग छोटे से
होते हैं या भारत में ब्रह्मचर्य का महिमा मंडन कहीं नॉन सेक्सुअल एक्टिव या
पूर्णतया अथवा अंशत:सेक्स में अक्षम लोगों ने खुद की अक्षमता छुपाने के लिए इस
विषय को इतना पीछे धकेल दिया हमारे साथ
क्योकि वो हमारी आँखों में आँखें नहीं डाल
सकते थे और इस विषय से जुड़े शब्द को असभ्य कह के इतना दोहराया कि हर देश
ज़बान भाषा बोलने वाले लोग के डीएनए में या बाइ
डिफ़ॉल्ट इस विषय और इस के शब्द हमारे लिए असहज हो गए मेकिंग ऑफ़ लव ठीक है
सेक्स अजीब साउंड करता है किस फोरप्ले इंटरकोर्स ओरल सेक्स ब्रेस्ट निप्लस पेनिस
वेजाइना ...आप असहज हो रहे होंगे ?
हम लिंग और योनि पेनिस और वेजाइना बोलने में इतने असहज हो जाते हैं कि कॉक Dick और पुसी कहतें हैं ?
उल्लास 4
(क्यों का इशारा करते हए माइक रखते हुए कहती है )
सहज नहीं होंगे तो यह आनंद का विषय आपको असहज बनाएगा आपकी असहजता कम करने और काम .. सेक्स के दौरान की.. कुछ कविता ...मूलत: बिम्ब यात्रा के हैं
कामशास्त्र की किताबों कामसूत्र, स्मर दीपिका, पंच सायक:, रतिरात्न प्रदीपिका, रति कल्लोलिनी आदि से
लोग अपनी असहजता छुपाने के लिए हँसेंगे सेक्स की बात सुन के हँसना हमारे पूर्वजों ने हमारे डीएनए में दिया है आपने शायद पहले ध्यान दिया हो, पर ऐसा सोचा नहीं होगा..
खैर ! मेरा नाम है _______ , इसमें संगीत दे रहे हैं _______ , ये नृत्य तैयार किया है_______, लाइट डिज़ाइन किया है__________ इसके निर्देशक _______ और लेखक मस्तो हैं..
अधर समझते हैं ? लिप और ज्याद: जगह लोअर लिप से है.. और पान का अर्थ होता है पीना पहली कविता अधर पान
असल में
अधर पान
है अवस्था परिवर्तन
ठोस का द्रव में
तभी तो कोई
कर सकेगा पान
हम दोनों का शरीर
नदी हो के पी रहा होता है
एक दूसरे को
एक ही समय में बढ़ और घट
रहे होते हैं
और इसका अंत ही नहीं है
आलिंगन
आलिंगन
बांधना नहीं थामना है
ये भी सच है
बगैर बांधे कैसे थाम सकता है कोई
सीत्कार वो आवाज़ जो सेक्स करने के दौरान निकल पड़ती है जो पोर्न में आपने ज्याद : सुनी होगी..
हाँ वो ही सी सी या आह आह स्वत:
सीत्कार
कोयले के इंजन में
धीरे धीरे
बढ़ता रहता है
कोयला
इस बढ़ते हुए कोयेले से
बढती है गति
और तेज़ आवाज़ के साथ
इंजन देता है सीटी
यह आवाज़ बताती है
रास्ता दो
हो रही है तेज़ गति
यह चेतावनी भी है
सूचना भी
आश्वासन भी
और उर्जा का नियंत्रण भी
पूर्व जन्म
इस काम के मध्य
जब घट जाता है सम्मोहन
बहुत गहरा हो जाता है एहसास
और जैसे हर शाम
धीरे धीरे डूबने लगता है सूरज
शरीर हो जाता है लुप्त
बस बंधें होते हैं दृष्टि बन्ध में
और जकड़े रहती है साँसें
एक दूसरे को
तो बातें करने लगती है आत्मा
ध्यान आता है
हम पहले भी मिल चुकें हैं कभी
यात्रा
दो नर्तक
(अपने साँसों के)
पूरक रेचक को कर के समान
समान कर लेते हैं ऊर्जा
और
ताल मिलता है एक सा
फिर अपने शरीर के
उठते गिरते अंगों को
कर के एक सा
एक लय
हो जाते हैं
फिर आरम्भ होता है
खेल
प्रतिक्रिया का
जो क्रिया के फलस्वरूप है
और बराबर भी
यहाँ साँसों के बीच लगने वाला कुम्भक
(पॉज़ है होल्ड है)
क्षण भर का विराम है
हम दोनों की यात्रा है
अंतरीक्ष की
आध्यात्म की
आत्मा की
चुम्बन
एक के बाद एक
और बना लेते हैं आ कृति
या पानी पे डालते कंकड़
तरंगे उठ कर
छूने निकलती हैं किनारा
ये चुम्बन और क्या है
दन्त और नख प्रहार (याने दांत और नाख़ून से सेक्स के दौरान के चिन्ह)
गुफ़ाओं या सम्पति पे
उत्सव या सुख के क्षणों में
आदि मानव बनता रहा
चिन्ह
यह जताने
यहाँ मैं था या ये मेरा है
यही प्रकृति
दन्त और नख के
प्र हार से
असीम आनंद में
छोड़ देती है
स्मृति चिन्ह
योगिनी
[१]
आखिऱ कैसे ?
तुमने ये जादू कर डाला...
देखा..
थामा...
समेट के मुझको
कुछ फूँका...
फिर
खुलती रही मैं...
ऊपर बढ़ती रही मैं..
भीतर आते रहे तुम..
[२]
पहले तो मैं
डरी बहुत
मैने तो
सब दरवाज़ों पे
ताले लगा रखे थे...
और चाभी पिघला के
सर्पाकार
कंगन बना लिए थे..
फिर कैसे ?
[३]
डर लगता
ठगी गयी मैं
जन्मों जन्मों
डर तो देखो...
धीरे धीरे जाएगा...
तुम भी
पहले.. कड़वा..तीखा....खट्टा...
ज़हर चखो ...
तब जा कर फिर
मीठा पानी आएगा...
[४]
सब्र करोगे ?
:
चाँद
मिरी नाभी के नीचे सोता है...
उसे जगाओ...
ऊपर लाओ...
नाभी..
सीना..
गर्दन
फिर माथे पे होगा...
चाँद..?
हाँ वो भी..
(और हम भी)
masto96@gmail.com
+91 9336670006 Masto Gaurav Srivastava
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