सजा कर
ख़्वाब
आंखों में..
मिरा साया..
कहीं गुम हो गया आख़िर ...
यही आवाज कानों में
मुसलसल आ रही थी,
“मैं रौशनी को ढूढने जा रहा हूं..’’
हंसू ?
इस बात पर मैं...
और
रो भी लूं...
:
नहीं पूछा कभी मुझसे
न मौका ही दिया मुझको
गुज़रते वक़्त ने अच्छा किया ये
:
मैं दिन भर
दौडक़र
थककर
बहाता हूं पसीना,
कि दरिया नींद का आये
:
नहीं तो, मैं
लगा लूं पैग
एक दो तीन
हा ! हा !! हा !!!
:
वगरना मैं
सजा कर
अपने दोज़ख को
मजे के साथ जीता हूं...
:
मैं झूठा हूं ।
मैं ये सच जानता हूँ ।
मिरी ये कैफियत ..
कुछ भी नहीं..
वहशत है मेरी...
:
ये कैसा अक्स
उभरता है
मिरी आंखों के परदे पर...
बदन मेरा
सिमट कर
हो गया आंसू
मैं बहता जा रहा हूं...
ढूढऩे तुमको...
मैं बहता जा रहा हूं...
ढूढऩे खुद को।
मिरा दुख ही,
मिरा सुख है ।
अजीयत ये
मुझे मजबूर करती है
बिखरने को
सिमटने को
समन्दर की तरह
लेकिन
मैं ये सच जानता हूं
मिरी यात्रा का हासिल
मुझे हासिल
कहाँ होगा ।
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