:
और अगर हम मित्र हैं
तो निडर हैं
एक दूसरे से भी..?
:
पर ये जो चाह है
तुम्हारी
तुम सच में चाहते हो ?
या
भीतर की आग को..
कम करने हेतु
बाहर की बढ़ा रहे हो..
:
नहीं मना करना तुमको
असम्भव है..
याद नहीं तुमको ? है ना ??
सुनने से पहले तुमको..
कहा था
मैंने
“आदेश !”
:
क्योंकि मैं जहाँ खड़ा था
वहां से भूत कहाँ देख सकता था...?
मैं जो थोड़ा सा हूँ..
बस वर्तमान हूँ...
भूत तो मित्र अनुमान है ?
नहीं ?
जैसे भविष्य...
सटीक तो बस वर्तमान है..
या
हो सकता है..
:
देखो पीड़ा बढ़ने दो
अपनी...
मेरी...
जैसे जैसे वो बढ़ेगी
वैसे वैसे हम...
और जो बड़ा होगा..
छोटे का ग्रास करेगा...
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