मैं पागल नहीं हूं


कभी चुपके से आओ
और आकर तुम
मिरी गरदन पर
अपने
नर्म-ओ-नाजुक
हाथों की
ठन्डी लगाओ
और फिर गर्मी।


सुनो ना
न कालीदास हूं मैं
और
न मीराजी
न होना चाहता हूं मै

मिरी ख्वाहिश
मैं जीना चाहता हूं
जिंदगी  को
रंग में उसके

मैं अपने आपसे
बाहर निकलकर
छू सकूं
तुमको
और आकर अपने अन्दर
जी सकूं
तुमको
ये क्या तकलीफ है मुझको
कभी आओ..
मुझे बाहर निकालो..
इस अज़ीयत  से...
वो कैसी शाइरी??
गर तुम नहीं जानां।
सभी वेदों के शाइर
शायरी में प्रार्थना करते थे
जीवन की
वो धरती मांगते थे
पेड़ ..
     पौधे..
         फूल...
                 तितली...

अगर मकसद यही है शाइरी का
तो मैं क्यों ?
शायरी की आरजू में
ज़िन्दगी ठुकराऊं ...
:
ये जितने
आर्ट के मारे हैं
शाइर हैं
मुसव्विर है
ये पागल हैं
नशे में होश के हैं
और कुछ
बेहोश हैं जानां।
:
सम्भाले कब संभालता है
जो उनके दामनों में
रौशनी का रस बरसता है
यूं लगता है
किसी सदियों पुराने
श्राप से शापित हैं

ये सब आर्ट के मारे
भटकते हैं अजल से
और अबद तक
भटकना उनकी किस्मत है
मैं इस आवरगी से
थक चुका हूं
और
बेहोशी के आलम से
निकलना चाहता हूं
:
मैं शाइर हूं
मगर पागल नहीं
कह दो कभी आकर
‘मिरे मस्तो हो तुम’
:
मगर मैं जानता हूं
तुम
न आओगी

मुझे यूं ही
नशे में होश के
बेहोश जीना है
भटकना है
मुझे भी...
श्राप से मुक्ति नहीं मुमकिन।


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