संन्यास


वो क्या चाहती थी..
नही कुछ पता था..
कहाँ जा रही थी..
नही जानती थी...
ये सब खेल
कब तक चलेगा..
ये वो सोच पाने के
क़ाबिल कहाँ थी..
नही कुछ मिला
जि़न्दगी को
मिरी जि़न्दगी  से...
तो थक हार कर..
कुछ बदलने की खातिर
नया नाम रखा
यात्रा का
साधना नाम रखा !





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