भारतीय शास्त्र 4

वैदिक और अवैदिक असल में कोई विभाजन नहीं है..समझने के दृष्टिकोण से हमने किया..
कुछ इसे वैदिक और लोक के नाम से विभाजन करते हैं कुछ इसे निगम और आगम के नाम से विभाजन करते हैं..
ये सारे विभाजन आगे जा के एक ही जगह मिलते दिखाई देते हैं...जैसे सारी नदियाँ समुन्दर में समां जाती हैं..
निगम के अंतर्गत वेद पुराण उपनिषद आते हैं...जिसे ज्ञान का स्रोत कहा जाता है पर ज्ञान प्राप्त करने की जो क्रिया विधि है तो आगम हुई..
आगम के लिए एक शब्द और प्रयोग किया जाता है तंत्र
व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'तन्त्र' शब्द ‘तन्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है 'विस्तार'। शैव सिद्धान्त के ‘कायिक आगम’ में इसका अर्थ किया गया है, तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम् (वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है)।

इस प्रकार आगम 5 भागों में विभाजित हो सकता है, 
१.    शैव आगम
२.    वैष्णव आगम
३.    शाक्त आगम
४.    बौद्ध आगम
५.    जैन आगम

बौद्ध और जैन चूँकि स्वयं को अलग धर्म की तरह मानते है सो आप इनको इस विभाजन में शामिल न करें..

इसपे हम आगे बात करेंगे जब हम तंत्र के विस्तार में जायेंगे
अब हम वापस से वहां आते है जहाँ बात छोड़ी थी..
निगम शिक्षा यानि
वैदिक शिक्षा विधि इसे वेदांग भी कहते हैं इसके 6 हिस्से हैं

शिक्षा, कल्प व्याकरण छन्द निरुक्त और ज्योतिष

शिक्षा
वेदों के स्वर, वर्ण आदि के शुद्ध उच्चारण करने की शिक्षा जिससे मिलती है, वह 'शिक्षा' है। वेदों के मंत्रों का पठन पाठन तथा उच्चारण ठीक रीति से करने की सूचना इस 'शिक्षा' से प्राप्त होती है। इस समय 'पाणिनीय शिक्षा' भारत में विशेष मननीय मानी जाती है।

स्वर, व्यंजन ये वर्ण हैं; ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत ये स्वर के उच्चारण के तीन भेद हैं। उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित ये भी स्वर के उच्चारण के भेद हैं। वर्णों के स्थान आठ हैं -

(1) जिह्वा, (2) कंठ, (3) मूर्धा , (4) जिह्वामूल, (5) दंत, (6) नासिका, (7) ओष्ठ और (8) तालु।
कण्ठः – अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ ड्。‚ ह्‚ : = विसर्गः )

तालुः – इचुयशानां तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ ञ्‚ य्‚ श् )

मूर्धा – ऋटुरषाणां मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्)

दन्तः – लृतुलसानां दन्तः – (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्)

ओष्ठः – उपूपध्मानीयानां ओष्ठौ – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ उपध्मानीय प्‚ फ्)

नासिका च – ञमड。णनानां नासिका च (ञ्‚ म्‚ ड्。‚ण्‚ न्)

कण्ठतालुः – एदैतोः कण्ठतालुः – (ए‚ एे)

कण्ठोष्ठम् – ओदौतोः कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ)

दन्तोष्ठम् – वकारस्य दन्तोष्ठम् (व)

जिह्वामूलम् – जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् (जिह्वामूलीय क्‚ ख्)

नासिका – नासिकानुस्वारस्य (ं = अनुस्वारः)


इन आठ स्थानों में से यथायोग्य रीति से, जहाँ से जैसा होना चाहिए वैसा, वर्णोच्चार करने की शिक्षा यह पाणिनीय शिक्षा देती है। अत: हम इसको 'वर्णोच्चार शिक्षा' भी कह सकते हैं।

कल्पसूत्र
वेदोक्त कर्मो का विस्तारश् के साथ संपूर्ण वर्णन करने का कार्य कल्पसूत्र ग्रंथ करते हैं। ये कल्पसूत्र दो प्रकार के होते हैं। एक 'श्रौतसूत्र' हैं और दूसरे 'स्मार्तसूत्र' हैं। वेदों में जिस यज्ञयाग आदि कर्मकांड का उपदेश आया है, उनमें से किस यज्ञ में किन मंत्रों का प्रयोग करना चाहिए, किसमें कौन सा अनुष्ठान किस रीति से करना चाहिए, इत्यादि कर्मकांड की सम्पूर्ण विधि इन कल्पसूत्र ग्रंथों में कही होती है। इसलिए कर्मकांड की पद्धति जानने के लिए इन कल्पसूत्र ग्रंथों की विशेष आवश्यकता होती है। यज्ञ आगादि का ज्ञान श्रौतसूत्र से होता है और षोडश संस्कारों का ज्ञान स्मार्तसूत्र से मिलता है।

वैदिक कर्मकांड में यज्ञों का बड़ा भारी विस्तार मिलता है। और हर एक यज्ञ की विधि श्रौतसूत्र से ही देखनी होती है। इसलिए श्रौतसूत्र अनेक हुए हैं। इसी प्रकार स्मार्तसूक्त भी सोलह संस्कारों का वर्णन करते हैं, इसलिए ये भी पर्याप्त विस्तृत हैं। श्रौतसूत्रों में यज्ञयाग के सब नियम मिलेंगे और स्मार्तसूत्रों में अर्थात्‌ गृह्यसूत्रों में उपनयन, जातकर्म, विवाह, गर्भाधान, आदि षोडश संस्कारों का विधि विधान रहेगा।

व्याकरण वेदों के ज्ञान के लिए जिन छः वेदांगों का विवेचन किया गया है उनमें व्याकरण भी महत्त्वपूर्ण वेदांग है। शब्दों व धातु रूपों आदि की शुद्धता पर व्याकरण में विचार किया जाता है। व्याकरण का अर्थ- व्याकरण शब्द का अर्थ अनेक रूपों में प्राप्त होता है- (क) व्याकरण का व्युत्पत्तिगत अर्थ है- व्याक्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् (ख) आचार्य सायण के शब्दों में व्याकरणमपि प्रकृति-प्रत्ययादि-उपदेशेन पदस्वरूपं तदर्थं निश्चयाय प्रसज्यते। (ग) पाणिनीय शिक्षा में व्याकरण को वेद-पुरुष का मुख कहा गया है- मुखं व्याकरणं स्मृतम्।

व्याकरण के प्रयोजन

       आचार्य वररुचि ने व्याकरण के पाँच प्रयोजन बताए हैं- (1) रक्षा (2) ऊह (3) आगम (4) लघु (5) असंदेह
(1) व्याकरण का अध्ययन वेदों की रक्षा करना है। (2) ऊह का अर्थ है-कल्पना। वैदिक मन्त्रों में न तो लिंग है और न ही विभक्तियाँ। लिंगों और विभक्तियों का प्रयोग वही कर सकता है जो व्याकरण का ज्ञाता हो। (3) आगम का अर्थ है- श्रुति। श्रुति कहती है कि ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि वह वेदों का अध्ययन करे।

(4) लघु का अर्थ है-शीघ्र उपाय। वेदों में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी जानकारी एक जीवन में सम्भव नहीं है।व्याकरण वह साधन है जिससे समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है। (5) असंदेह का अर्थ है-संदेह न होना। संदेहों को दूर करने वाला व्याकरण होता है, क्योंकि वह शब्दों का समुचित ज्ञान करवाता है।


निरुक्त
शब्द की उत्पत्ति तथा व्युत्पत्ति कैसे हुई, यह निरुक्त बताता है। इसविषय पर यही महत्व का ग्रंथ है। यास्काचार्य जी का यह निरुक्त प्रसिद्ध है। इसको शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कह सकते हैं। वेद का यथार्थ अर्थ समझने के लिए इस निरुक्त की अत्यंत आवश्यकता है।

छंद
गायत्री, अनुष्टुप्‌, त्रिष्टुप्‌, वृहती आदि छंदों का ज्ञान होने के लिए छंद:शास्त्र की उपयोगिता है। प्रत्येक छंद के पाद कितने होते हैं और ह्रस्व दीर्घादि अक्षर प्रत्येक पाद में कैसे होने चाहिए, यह विषय इसका है।

ज्योतिष
खगोल में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि आदि ग्रह किस प्रकार गति करते हैं, सूर्य, चंद्र आदि के ग्रहण कब होंगे, अन्य तारकों की गति कैसी होती है, यह विषय ज्योतिष शास्त्र का है। वेदमंत्रों में यह नक्षत्रों का जो वर्णन है, उसे ठीक प्रकार से समझने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान बहुत उपयोगी है।

इस प्रकार वेदांगों का ज्ञान वेद का उत्तम बोध होने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

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