खाने खिलाने की यात्रा


खाना बनाना भी मैंने वैसे ही सीखा, जैसे ज़िन्दगी में अधिकतर चीज़ें सीखी, जैसे साईकिल चलाना, कार चलाना, कहानी लिखना या आर्गेनाइजेशन चलना...

करीबी जानते हैं कि कायदे से उपरोक्त कुछ नहीं आता... गिरते पड़ते सीख ही रहे  हैं...कच्ची पक्की चीज़ें जानने की ये फेहरिस्त बड़ी लम्बी है, उम्मीद है, ज़िन्दगी के ढलने से पहले कुछ चीज़ें आ ही जायेंगी।  

खैर ! खाना बनाने के मामले में तो करीबी यार दोस्त डिश के साथ फरमाइश करते हैं, मसलन अम्मा मशरूम मटर या बेगम वेज़ कीमा मटर या भाई अचारी चिकन आदि।

बीते कुछ सालों से हम वेजिटेरियन हो गए पर अब भी कुछ तयशुदा नॉन वेज घर पर हम बनाते हैं..थोडा मुश्किल तो है वेजिटेरियन इंसान का नॉन वेज बनाना पर खाने को ले शुद्धता वादी का चश्मा न चढ़ जाए इसलिए यह रियाज़त करते रहते हैं।

भारत में स्त्री और पुरुषों की खाने बनाने का शौक़ अलग अलग कारण से है, जैसे बहुत लोगों को खिलाना बहुत पसंद है और अपने हाथ से बना के, खिलाना उन्हें बेहद ख़ुशी देता है।

बच्चा कॉलेज होस्टल से घर आये तो माँ क्या न बना दे उसके लिए और क्या क्या न पैक कर के उसके साथ भेज दे...।

खाने बनाने के विडियो देख कर मैं कभी नहीं समझ सका, थैंक्स टू संजीव कपूर, तरला दलाल...

ये विडियो ऐसे होते हैं कि आपको खाना बनाना राकेट साइंस लगने लगता है, उन सबको देख आपको लालच तो बहुत आता है लेकिन आप जानते हैं आप कुछ बना नहीं सकते...खैर मेरे लिए तो नामुमकिन रहा है.. 

खाने बनाने के विडियो इंस्पायर करने वाले होने चाहिए इतने आसन कि आपका उसी दिन बनाने का मन करे,बस क्या नहीं करना है ये हिदायत ज़रूर हो..

ये २०० ग्राम मशरूम में १०० ग्राम मटर ५ ग्राम लॉन्ग इलायची ये समझ कभी आई नहीं...
ये होटल वालों के लिए ज़रूरी होगा...हमने तो सब अन्दाज़े से किया है....खाना बनाना साइंस कम मूलत: एक आर्ट है, वेस्टन म्यूजिक की कोम्पोजीशन सुनी होगी आपने बिलकुल तयशुदा 8 मिनट 15 सेकंड...इन्डियन क्लासिकल म्यूजिक कोई तय सीमा नहीं 10 मिनट भी 1 घंटे भी या पूरी रात एक ही बंदिश चलती रहे..

सब कुछ देश, काल, वातावरण, मिजाज़, तबियत और रंग देख के तय होता है..

मेरे लिए खाना बनाना परफोर्मेंस की तरह है...कई दफा रसोई में जाने से पहले कुछ तय नहीं होता या तय होता भी है तो कुछ और बनाने लगता हूँ जैसे धनिया आलू बनाने गया और सरसों-खटाई के मसाले में आलू बना दिया...

पुरुषों का खाना बनाने से अलग ही लगाव होता है। अमूमन भारतीय परिवारों में खाना बनाना पुरुष की जॉब नहीं होती।

सुनने में अजीब लगे पर समाज की सच्चाई यही है सो वो शौकिया ही किचन में जाता है..सो वीकेंड- वीकेंड या कभी कभार का खाना बनाना बोझ नहीं लगता.. और आमतौर पर पुरुषों को गृहस्थी के चवन्नी भर समझ नहीं होती यानि अगर किसी के घर के बजट में महीने भर में १ किलों घी लगता है तो पुरुष १ ही दिन में ढाई सौ ग्राम ख़तम कर दे...

पितृ सत्ता के पोषण और उपरोक्त कारण से कि महीने का बजट गड़बड़ न हो इसलिए भी पुरुषों को कभी कभी रसोई में जाने की इजाज़त मिलती है..

खाना बनाना, रसोई का एक हिस्सा है और रसोई गृहस्थी का एक हिस्सा...मैंने पहले कभी ऐसे सोचा नहीं था पर शादी के बाद मेरी बेगम प्रसन्ना ये सब बड़े चाव से देखती, समझती है और जाहिर सी बात है, मुझसे इन तमाम विषयों पर बातें भी करती है तो मैं भी इस विषय को सोच समझ बढ़ा रहा...

हम लोगों की अम्मा कितने छोटे से बजट में क्या तो शानदार रसोई मैनेज करती थी..कितना तेल लगा, कितने की सब्जी आई, कितने का गोश्त, सिलेंडर 30 दिन चला कि 31 उनको सब ध्यान होता था या उनके डायरी में नोट.. 

ये सब मुझे तो नृत्य की तरह लगता है, और जिनको नहीं लगता है, उनके लिए खाना बनाना, रसोई आदि सब काम लगेगा. मैं पहले ही दर्ज कर चूका हूँ बींग प्रिवेलेज़ मैं ये नृत्य कभी कभी करता हूँ, और अपनी च्वाइस से

रोज़ करूँ तो ज़ाहिर सी बात है कि काम लगे पर वो लोग भी कमाल हैं जो रोज़ करते हैं या थे और उनके लिए काम नहीं हमेशा नृत्य ही रहा...। हम सलाम कर सकते हैं अपनी अम्मा लोगों को...

सबसे बड़ा कमाल है, सीमित गृहस्थी लिए, कितनों की रसोई अक्षय पात्र (माइथोलॉजी में इस्तेमाल बर्तन जिसमें खाना कभी ख़तम नहीं होता था) की तरह होती थी/है..घर में किसी समय कोई आ जाए, कितने लोग आ जाये थोड़ी देर में आप के सामने एक के बाद एक चीज़े आ रही हैं..

ये अन्नपूर्णा अम्मा लोग हमारी तरह रेडी टू ईट आइटम नहीं रखती थी न परोसती थी, आज भी ऐसे लोग मिल जाए पर १-२ पीढ़ी बाद ये सब दन्त कथा लगेगी...

 जबकि अब तो साइंस ने बहुत कुछ आसन कर दिया है. .लेकिन आपको अपने हाथ से बना के लोगों को खिलाने में सुख नहीं आता तो ये खिलाने का दौर ख़त्म ही हो जायेगा...।
हम सेल्फ सेंट्रिक ह्यूमन का बस खाने का दौर बचेगा...हम ख़वास लोग...

पहले घर में खीर के लिए अलग चावल, रोज़ खाने में मेरा पसंदीदा काला नमक चावल, जो जब पकता था, हाय पूरा घर गमक जाता था..कभी कभार बासमती... ।
अब हमारी इन्द्रियों को, कोन्सिअस को मसालों के शोर ने भोथरा कर दिया है ख़ास कर कैम्कल फ्लेवर..१ बूँद डाली और जिसका चाहा रंग और स्वाद कर दिया...

खैर ! इसी तरह गेंहू बाजरा चना या मुर्गे या बकरे या मछली..(जैसे गंगा में ही पायी जाने वाली सिंहा जो गरम मसलों के साथ पकती और गोश्त सी लगती ( भारत में अमूमन मछली सरसों के/ ठन्डे  मसाले में बनती है)) की भी अलग अलग किस्म घर में आती थी...पर प्रकृति से हम दूर और दूर बहुत दूर होते जा रहे...और प्रकृति बस कोई बाहर की ही चीज़ नहीं है भीतर भी है सो हम ख़ुद से भी बहुत दूर निकल आयें हैं...ध्यान से कहीं इतने दूर न निकल आयें कि वापस ही न लौट पायें..

  


 

 

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